तमाम महिमागान के बाद भी हम हैं खुद से ही हारी नस्ल

भारत के लिए आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि आज के दिन हमारे भारतीय चरित्र का अश्वमेघ यज्ञ पूरा हो गया है. आज के दिन हमको खुश होना चाहिए क्योंकि आज हमको इस बात का उत्तर मिल गया है कि तमाम महिमागान के बाद भी हम अपने से हारी नस्ल है.

15 अगस्त 1947 के बाद से ही भारत यही सुनता और पढ़ता आ रहा है कि भारत एक लोकतंत्र है और भारत की जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था के ही अनकूल है. हकीकत यही है कि हम भारतीय अपने को लोकतांत्रिक कहते हुये नही धकते है.

हम इस बात पर भी बड़ा अभिमान करते है कि हमारा भारत, लोकतंत्र के लिए अनिवार्य शर्तो को पूरा करता है. भारत के लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तंभ, विधायिका, कार्यपालिका, न्‍यायपालिका और मीडिया के स्वतंत्र माने जाने पर हम लोटन कबूतर बने घूमते हैं.

लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि पूरा भारत विधायिका और कार्यपालिका को भ्रष्ट स्वीकार करते हुए ही न्यायपालिका और मीडिया की शरण मे पिछले दो दशकों से बिछा हुआ था. लेकिन आज वह भ्रम भी खत्म हो गया है.

यह दो स्तंभ भी उतने ही भ्रष्ट है जितनी विधायिका और कार्यपालिका मानी जाती है और इन दो दशकों में हम सब जानते हुये भी इन दो स्तंभों को को विशेष मानते रहे है.

इन स्तंभों के सड़े होंने की इतिश्री इससे हो गयी जब कलकत्ता हाईकोर्ट कोर्ट के जस्टिस चिन्नास्वामी स्वामीनाथन कर्णन ने कल सर्वोच्च न्यायालय के 7 जजों को 5 वर्ष की सजा सुनाई थी और आज सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी पाया है और उन्हें 6 महीने से जेल की सज़ा सुनाई है.

हमने इतनी खूबसूरती से अपने लोकतंत्र की बगिया को सींची है कि आज हम यह भी नहीं यह सकते है कि हमने गुलाब की पौध लगाई थी लेकिन कैक्टस निकल आया है.

हम इतनी हास्यास्पद स्थिति में आ गये हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को मीडिया को यह आदेश देना पड़ गया है कि जस्टिस कर्णन के आदेशों के बारे में कुछ भी नही छापे!

जस्टिस कर्णन का हाई कोर्ट तक पहुंचना और सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे ही जजों का पहुंचना यही बताता है कि यह एक दिन का मामला नहीं है. यह हमारे भारतीय समाज से ही पहुंचे हुए लोग है, इस लिए उनके ऐसे होने को हम अपवाद नहीं मान सकते है.

जस्टिस कर्णन हम ही है. इनको हमने ही बनाया है. यह ठीक वैसा ही है जैसे हमने केजरीवाल और ‘आप’ को बनाया है. आज इसी का परिणाम है कि दिल्ली की विधानसभा में निर्लज्जता से अरविंद केजरीवाल अपने भ्रष्ट आचरण को दरकिनार कर, एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था इलेक्शन कमीशन के मुंह पर तमाचा मारते हुए उसके द्वारा विस्तारित की गयी ईवीएम पर नौटंकी करता है.

हम सब असहाय है क्योंकि हमी ने उसे भारी मत से, सब अंदेशे के बाद भी चुना है. हम भारतीयों को यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हम जब भी कोई निर्णय लेते है, वह इसी भरोसे लेते है कि इस निर्णय से सबसे ज्यादा, हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति होगी.

हमारे निर्णय में हमारा समाज और राष्ट्र हमेशा आखिरी पायदान पर होता है. हम भारतीय अंदर से खुद ही इतने भ्रष्ट और स्वार्थी है कि हम तब तक आंखे मूंदते रहते है जब तक हमें व्यक्तिगत कोई नुकसान नहीं होता है.

हम भारतीय बिल्कुल भी भोले नहीं है क्योंकि न्यायपालिका और मीडिया में हम ही है. यह ठीक वैसा ही जैसे विधायिका और कार्यपालिका में भी हमी है. यह सब हमारा ही पिछले 1000 वर्षों से बोया हुआ है.

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