पिछले दिनों स्वास्थ लाभ के दौरान “आप” के घटनाक्रम को देख कर मुस्कुरा रहा था. यह सब अब कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता. खुशी इस बात को लेकर थी कि आज से पांच साल पहले एक लेखक के रूप में मैं इन्हे पहचान सका.
अगस्त 2012, आंदोलन से समाज का हित-अहित को लेकर एक लेख लिखा था, जिसका मुख्य अंश है –
किसी आंदोलन की सफलता-असफलता, समय-काल और समकालीन परिस्थितियों पर निर्भर करती है. मगर समाज को होने वाले हित-अहित का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ी इतिहास पढ़ने से अधिक अपने तत्कालीन जीवन की हकीकत से करती है.
आंदोलन फिर चाहे वो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक मुद्दे पर हो. व्यवस्थाजनित बुराइयों, कमजोरियों, तकलीफों, मुश्किलों से तंग अवाम की कोख में क्रांति के बीज पनपते हैं. और फिर जितना अधिक जनता में आक्रोश होगा उतना ही बड़ा आंदोलन खड़ा होगा.
हां, आगे का घटनाक्रम इस बात पर निर्भर करता है कि नेतृत्व कौन कर रहा है और वो इसे किस दिशा में ले जाता है? विश्व इतिहास इस बात का प्रमाण है कि जनता के आक्रोश को समकालीन नेतृत्व ने एक ऊर्जा के रूप में उपयोग किया, फलस्वरूप परिवर्तन हुए.
जितना बड़ा आंदोलन होगा उतने ही अनुभवी, दूरदर्शी, परिपक्व व संतुलित नेतृत्व की आवश्यकता होती है. अनियंत्रित और शक्तिशाली घोड़े के लिए कुशल घुड़सवार चाहिए, अन्यथा छोटी-सी चूक की सजा समाज सदियों तक भुगतता है.
पिछले कुछ वर्षों से हिन्दुस्तान भ्रष्टाचार की नयी-नयी ऊंचाइयों को देख क्रोधित हो उठा. ऐसे में आक्रोश दिन-प्रतिदिन बढ़ना ही था. जब विस्फोटक स्थिति पहुंची, इस बीच कुछ एक लोगों ने इस ऊर्जा के साथ बहकर फिर धीरे से इसकी सवारी करने की कोशिश की. उनको समर्थन मिलना स्वाभाविक था.
रातोंरात मिली लोकप्रियता और घर-घर हुई अचानक चर्चा के पीछे एक यही कारण था कि हर दिल में क्रोध की अग्नि जल रही थी. आंदोलन के नेतृत्व को सपने दिखाना आवश्यक है फिर चाहे वो संभव हो न हो.
क्रोधाग्नि में जल रहा अवाम इस पर अमूमन चर्चा को तैयार नहीं होता. और न ही उसे सोचने और समझने की फुर्सत होती है. अतः जनलोकपाल घर-घर पहुंचा. यह वास्तविकता में कितना कारगर होगा यह तो समय ही बतायेगा.
बहरहाल, यह लेख का विषय नहीं. और फिर जिन्होंने इसे उठाया था वही जब इसे छोड़कर आगे निकल पड़े तो हम क्यों इस पर अपनी ऊर्जा खर्च करें. फिलहाल, ठगी-सी जनता अवाक् है, प्रश्न तो वो बाद में करेगी. फिलहाल तो पूछा ही जा सकता है कि बेसब्र-बेचैन जनता को लोकपाल आंदोलन से क्या मिला?
जब अवाम समस्त शासन व्यवस्था के भ्रष्ट आचरण से परेशान हो, ऐसे में शीर्ष पर बैठे लोगों को कोई जितना अधिक लक्ष्य बनाएगा उसे उतनी अधिक लोकप्रियता और समर्थन हासिल होगा. यह काम टीम-अन्ना ने बखूबी किया.
उधर, व्यवस्था में बैठे लोगों से, अब इसे चूक कहें, बेवकूफी कहें, नासमझी कहें या फिर सोची-समझी मिल-जुलकर बनाई गयी राजनीतिक चाल का एक हिस्सा, जो भविष्य ही निश्चित करेगा, मगर यह तय है कि बदले में सीधी प्रतिक्रिया देने से अचानक कुछ अनजान चेहरों को उन्होंने जाने-अनजाने ही अपने समकक्ष ला खड़ा किया.
रातोंरात मिली लोकप्रियता से टीम-अन्ना सुपर सितारा घोषित हो गई थी. यह कम रोचक नहीं कि यहां बिना कुछ किये ही नेतृत्व और भीड़ के बीच एक विश्वास कायम हो गया. इस दौरान टीम-अन्ना और मीडिया एक-दूसरे का काम बखूबी करते नजर आये.
इसके बावजूद विश्वास नहीं होता. आमरण अनशन का यूं ही अचानक समाप्त हो जाना, हो सकता है सब कुछ योजनाबद्ध हो. मगर भोली जनता अभी तक कुछ ठीक से समझ नहीं पा रही. और भी कई सवाल खड़े होते हैं. जिसका विश्लेषण, अब नयी बनने वाली अन्ना-पार्टी पर करने की आवश्यकता है.
यूं तो टीम-अन्ना में आपसी मतभेद अवाम के लिए कोई मायने नहीं रखते मगर जब आप ड्राइविंग सीट पर विराजमान होने के लिए ट्रायल दे रहे हों और बस से यात्री उतरने लगें तो शंका का होना स्वाभाविक है.
किसी भी आंदोलन को क्रांति में परिवर्तित करने के लिए अधिक से अधिक लोगों का जुड़ना आवश्यक होता है. और राजनीति में तो बहुमत जरूरी है. मगर यहां तो खेल शुरू भी नहीं हुआ था और टूटन शुरू हो चुकी.
बड़ी सफाई से इल्जाम लगाया गया कि आंदोलनकारियों को तोड़ा जा रहा है, बेवजह बदनाम किया जा रहा है. मगर यह तो राजनीति में और अधिक होगा. विरोधी आपको सब कुछ थाली में सजाकर परोस कर खाने के लिए देने वाला नहीं. और फिर जिस तरह से आप सब कुछ कहने और करने के लिए स्वतंत्र हैं वही अधिकार तो अब सामने वाले को भी प्राप्त है.
अब तो कोई यह भी कह सकता है कि अगर सभी राजनीतिक नेता खराब हैं तो आखिरकार अच्छा कौन है? और फिर आपकी बातों का भी भरोसा क्यों किया जाये? क्या जरूरी है कि आप सत्ता में बैठने पर भ्रष्ट नहीं होंगे? क्या आप देवलोक से आये हैं?
अब तो राजनीतिक महत्वाकांक्षा के उजागर हो जाने पर बात भिन्न है. भ्रम के हट जाने से तस्वीर साफ नजर आने लगी. बंद मुट्ठी अब खुल चुकी है. अब तो अन्ना-पार्टी राजनीति में प्रवेश कर रही है, जिसका प्रवेश-शुल्क बहुत महंगा है.
और फिर यहां प्रवेश करने के बाद व्यवस्था के अंदर बैठा आदमी अपनी जड़ों को नहीं खोदता, उलटा नींव मजबूत करने में प्रयासरत हो जाता है. व्यवस्था परिवर्तन की बात अब अन्ना-पार्टी के मुंह से शोभा नहीं देगी. सच तो यह है कि वह सत्ता परिवर्तन का प्रयास करते-करते सत्ता के भागीदार तो बन ही जायेंगे.
बहरहाल, यह बहुत दूर की बात है मगर इसकी संभावना को देखें तो पायेंगे कि टीम-अन्ना अभी से ही अहम् की शिकार है. लेकिन जब अनुभव की कमी हो और बहुत जल्दी बहुत सस्ते में लोकप्रियता मिल जाये तो ऐसा अमूमन होता है.
यहां यह सवाल महत्वपूर्ण है कि टीम-अन्ना के सदस्यों को ही इतनी लोकप्रियता क्यों प्राप्त हुई? क्योंकि गली-गली कई अरविंद, मनीष, और कुमार कहीं अधिक ईमानदारी से काम कर रहे हैं, मगर सबको वो नहीं प्राप्त हुआ जिनके वे हकदार हैं.
कहने वाले तो बहुत कुछ कहते हैं, तब भी किस्मत के अतिरिक्त यहां बहुत कुछ होने का आभास होता है. यह किसी देशी-विदेशी संस्था की सोची-समझी रणनीति हो या कोई अदृश्य हाथ! मगर इतना जरूर है कि पहले भ्रष्टाचार ने देश को खोखला किया और अब भ्रष्टाचार विरुद्ध आंदोलन का असफल होना देश का अहित करेगा.
व्यक्तिगत रूप से किसी को कितना अधिक फायदा हुआ या आगे होगा, इस लेख के लिए कतई महत्वपूर्ण नहीं. यहां देखने वाली बात यह है कि समाज का कितना अधिक नुकसान होगा.
देश उबल रहा था, भाप बन रही थी, प्रेशर तैयार हो रहा था यकीनन अगर सब कुछ ठीक चलता तो परिवर्तन का धमाका जरूर होता. मगर यहां पर मानों किसी ने प्रेशर कुकर की सीटी बजा दी. फलस्वरूप प्रेशर खत्म हो गया.
ऐसे में शोर तो बहुत हुआ मगर खिचड़ी नहीं पकी. गुब्बारा फूल रहा था उसे एक नयी ऊंचाई पर पहुंचना था मगर ऐसा लगता है किसी ने उस पर अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ लाद दिया. ऐसे में गुब्बारे को नीचे तो आना ही है.
इस आंदोलन की असमय मौत से हम क्या कुछ खोने जा रहे हैं, हम अभी नहीं समझ पा रहे. मगर इससे किसी को क्या? आने वाली पीढ़ी का जो होना है सो होगा, मगर कई चतुर-चालाक स्वार्थिंयों ने अपना वर्तमान तो बना ही लिया और भविष्य के रंगीन सपने भी देखने लगे.
इसके बाद का अक्टूबर 2012 में लिखा, यह लेख “आरोपों की राजनीति” आज के संदर्भ में तो हंसने के लिए भी है, वो कैसे, लेख के मुख्य अंश के बाद देखें –
अगर आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं है मगर थोड़ी-सी हिम्मत रखते हैं तो आप किसी भी सफल और लोकप्रिय व्यक्ति पर झूठे-सच्चे आरोप लगाकर कुछ न कुछ तो बदले में प्राप्त कर ही सकते हैं.
यह आरोप तरह-तरह से लगाये जा सकते हैं. लेकिन इसका असर अधिकतम तभी होता है जब यह आम जनता के बीच तक पहुंचे, जिससे संबंधित व्यक्ति की बदनामी हो.
यूं तो, विभिन्न सरकारी सतर्कता संस्थानों में शिकायत भेजकर उसकी आय, संपत्ति व व्यवसाय आदि की उचित जांच की मांग की जा सकती है. लेकिन कुछ खास लोगों में ये विशिष्ट (अव)गुण पेशे के रूप में देखे जा सकते हैं.
सरकारी कार्यालयों में एक-दो कर्मचारी ऐसे अवश्य मिल जायेंगे जिन्हें ड्यूटी से अधिक शिकायत लिखने-करने की आदत होती है. यूनियन भी ऐसे लोगों को पालकर रखती है. ये छोटे अधिकारी की शिकायत बड़े अधिकारी से और प्रभारी अधिकारी की शिकायत हेडक्वार्टर में किया करते हैं.
ये कार्यालय में फाइलों को सूंघते रहते हैं. भ्रष्ट कर्मचारी-अधिकारी इनसे मिल-जुलकर रहने का प्रयास करते हैं, लेन-देन का प्रयास होता है, मगर फिर भी बात न बनने पर शिकायत कर दी जाती है. इन लोगों से आमतौर पर प्रशासन भी बचता है.
ये एक तरह से ब्लैकमेलर का काम करते हैं. प्राइवेट संस्थानों में भी ऐसों की कमी नहीं. बस यहां की कार्यप्रणाली भिन्न होने की वजह से इनके तरीके थोड़े भिन्न होते हैं. ये मालिकों के लिए चुगलखोरी करते हैं. उनके कान भरते हैं. बदले में ऐश करते हैं. राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी ऐसे चरित्र मिल जायेंगे जिन्होंने अपना धंधा इसी से चमका रखा है.
आरोप लगाने वाला उपरोक्त विशिष्ट वर्ग अमूमन बहुत निडर, बेशर्म एवं अति आत्मविश्वास से भरा होता है. ये वाक्चातुर्य की कला में माहिर होते हैं. इनके झूठ को पकड़ना नामुमकिन है, ये फंसने पर विषय ही बदल देते हैं.
इनका चतुर, चालाक के साथ ही धूर्त और मौकापरस्त होना तो स्वाभाविक है. ये आमजन से अधिक बुद्धिमान मगर नकारात्मक सोच से ग्रसित रहते हैं. आमतौर पर मृदुभाषी और मिलनसार बनने के लिए प्रयासरत रहते हैं और अपनी मासूमियत प्रकट करने व स्वयं को सरल एवं सच्चा साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते.
हर किसी पर आरोप लगाना इनका स्वभाव होता है जो आगे जाकर पेशा बन जाता है. दुर्भाग्यवश इन्हें लोग जल्द पहचान लेते हैं मगर कुछ भी कहने-करने से बचते हैं. ऐसा नहीं कि इनके निशाने पर हमेशा भ्रष्ट और गलत व्यक्ति ही हो. समाज में अच्छे और भले लोगों की आज भी कमी नहीं. मगर इनको भी झूठ बोलकर फंसाने में ये विशिष्ट वर्ग माहिर होता है.
असल में झूठे इल्जाम से और कुछ नहीं तो बदनाम और तंग तो किया ही जा सकता है. यही कारण है जो शरीफ और सामान्य व्यक्ति इनसे दूर रहने की कोशिश करता है. कौन बेवजह की चकल्लस में फंसे.
और फिर कभी-कभी जाने-अनजाने में छोटी-बड़ी गलतियां हो भी जाती हैं. मगर आरोप लगाने वाला वर्ग तो इसी के इंतजार में सदा रहता है. बहरहाल, ये आरोप लगाने वाला वर्ग कभी काम नहीं करता और न ही उससे किसी सकारात्मकता की उम्मीद की जा सकती है.
हां, हर काम करने वाले पर उंगली उठाने से जरूर नहीं चूकता. खैर, इनके चक्कर में कभी-कभी काम प्रभावित भी होने लगता है. ऐसे लोगों के अधिक पनपने पर आमजन डरकर सामान्य काम करने से भी बचने लगते हैं.
ऐसी अवस्था में, कुछ न करके ही किसी जानी-अनजानी गलती से बचा जा सकता है, की मानसिकता उपजती है. फलस्वरूप कार्यालयों में निष्क्रियता और उदासीनता फैलती है. और अंत में नुकसान संपूर्ण व्यवस्था का होता है. मगर इससे आरोप लगाने वाले वर्ग को क्या?
इन लोगों का एक खतरनाक रोल और भी है, कई बार व्यक्तिगत हित साधने के लिए अपने दुश्मन के विरोध में इस तरह के लोगों का इस्तेमाल भी किया जाता है. इसके लिए कई तरह की आंतरिक सूचनाएं खुद इन लोगों को प्रदान की जाती हैं.
मजेदारी तो यह है कि मौके का फायदा उठाकर आरोप लगाने वाला ये वर्ग कई बार दोनों ओर के मजे लूटता है. इस आरोप-प्रत्यारोपों में सामने वाला व्यक्ति-संस्थान जितना बड़ा होगा बदले में उतने ही बड़े लाभ की उम्मीद की जा सकती है. इसीलिए ये विशिष्ट वर्ग अपने सामर्थ्य और समझ में आने वाले सबसे शीर्ष व्यक्ति को घेरने के चक्कर में रहता है.
ऐसा नहीं कि ये हमेशा ही अपने मकसद में सफल हो जाते हैं. कई बार सामने वाला पक्ष अधिक मजबूत व सशक्त निकला तो हाथ-पैर भी तुड़वा सकता है. मगर ये लोग अमूमन मोटी चमड़ी के निर्लज्ज प्राणी होते हैं.
इसका सही-सही आकलन तो नहीं किया जा सकता कि इस तरह से आरोप लगाने वाला वर्ग स्वयं कितने प्रतिशत नुकसान या डर में रहता है? मगर यकीनन इसका प्रतिशत कम ही होता है.
अर्थात अधिकांश अपने मकसद में, कुछ हद तक ही सही, कामयाब हो जाते हैं. और समाज में मस्ती करते हुए देखे जा सकते हैं. और कुछ नहीं तो मुफ्त की लोकप्रियता और झूठा डर व दबदबा तो हो ही जाता है.
….यूं तो लेख आगे भी है मगर यह बात यहां इसलिए मुझे हंसने के लिए मजबूर कर रही है कि तब मैंने यह नहीं सोच था कि ऐसे लोगो अपने ही किसी चेले के इतने जल्दी शिकार भी हो जाते हैं.
जबकि आजकल का तो जो शिकार है वो हिरन की तरह मासूम नहीं बल्कि चालाक लोमड़ी के भेष में भी बढ़िया गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर है, उसकी टक्कर का कोई जानवर नहीं, हां इंसानो में नटवरलाल को भी यह मात दे सकता है.
बहरहाल इस व्यक्तित्व का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण नहीं. बल्कि पिछले पांच सालों में पचास बार ऐसे कारनामों से एक्सपोज़ होने के बाद भी अगर यह आदमी अभी तक राजनीतिक रूप से सांस ले रहा है तो वो अधिक खोज का विषय है. जिसका कुछ-कुछ उल्लेख ऊपर पहले लेख में हुआ है कि इसके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है.
यूं तो इतिहास ऐसे अनेक प्लांटेड लोगों से भरा हुआ है मगर शायद कम ही ऐसा हुआ है कि उस शक्ति का षड्यंत्र जनता जान पायी. यहां भी हम सब शायद ही जान पायें. मगर मैं इस पर अपना अनुमान लगाना चाहूंगा. आप भी सोच सकते हैं.
मेरे मतानुसार यकीनन वो कोई राजनैतिक पार्टी अकेले नहीं हो सकती और किसी विदेशी एजेंसी के शक को भी निराधार नहीं माना जा सकता, मगर कोई और भी है. ये “कोई लोग” पहले भी देश-विदेश में राजनीतिक षड्यंत्र करते रहे हैं. इसके लिए इतिहास को ध्यान से पढ़ना होगा और between the lines को समझना होगा. मैं कोशिश में हूँ, आप भी करें.