रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद, ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ, कृष्ण जन्मभूमि और शाही मस्जिद विवाद से तो सभी वाकिफ हैं, बहुत से लोग मध्यप्रदेश के धार जिले के भोजशाला और कमाल मौला मस्जिद विवाद से भी वाकिफ होंगे.
ऐसा नहीं है कि जहाँ-जहाँ प्रतिष्ठित हिन्दू मंदिर थे सिर्फ उन्हें तोड़ कर मस्जिदें बनायीं, 620 ईस्वी में अरब के कबीलों के मंदिर को तोड़ कर मक्का की वर्तमान मस्जिद से लेकर 1974 में सायप्रस के मशहूर गिरजाघरों को नमाज के लिए मस्जिदों में तब्दील कर दिया गया.
1975 में वामपंथी खमेर रूज़ ने कम्बोडिआ के सारे बौद्ध मठों को या तो बंद कर दिया था या ध्वस्त कर दिया था, हाँ, उनको मस्जिदों में तब्दील नहीं किया था,
1975 के बाद से ऐसा कम हो रहा है, क्या कम हो रहा है? यही कि मंदिर, मूर्तियाँ और चर्च तोड़े तो जा रहे हैं लेकिन उनकी जगह मस्जिदें नहीं बनायीं जा रही है.
इसी सन्दर्भ में मुसलमानों को अपना प्रिय मित्र मानने वालों बौद्धों के लिए एक छोटा सा किस्सा लिख कर मुख्य मुद्दे पर आते हैं.
बात 1997 की है कि अफगानिस्तान में तालिबान के एक कमांडर अब्दुल वाहिद ने घोषणा की कि सत्ता में आते ही वो बामियान में बुद्ध की 55 मीटर और 35 मीटर (गौर करें मीटर है फ़ीट नहीं) की प्रतिमाएं ध्वस्त कर देगा.
जनाब ने 1998 में बुद्ध की उन भव्य प्रतिमाओं के सिर में विस्फोट भरने के लिए ड्रिल करवाई, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दबाव में उन्हें तोड़ नहीं सका फिर भी प्रतिमाओं के सिर टायर रख कर आग लगा दी.
वाहिद गए तो मुल्ला उमर आ गए और उन्होंने 2 मार्च 2001 में शिल्प और आस्था के दोनों नायब नमूनों को बारूद से उड़ाना शुरू किया और कई हफ़्तों की मेहनत के बाद उन दोनों प्रतिमाओं को ख़त्म करने में कामयाब हुए.
वैसे श्री सीताराम गोयल जी ने अपनी पुस्तक ‘HINDU TEMPLES–WHAT HAPPENED TO THEM” में 2000 उन प्रमुख मंदिरों की सूची दी है जिन्हें तोड़ कर मस्जिद बनाया गया और वर्तमान में वहाँ नमाज़ अदा होती है.
ये बातें हुईं कि कैसे अपने को शांतिप्रिय कहने वाले मज़हब ने दूसरों के धर्मस्थलों और गौरवशाली प्रतीक चिन्हों को बर्बरतापूर्वक मिट्टी में मिला कर अपने मज़हब का प्रसार किया है.
बात मुसलमानों द्वारा बर्बरतापूर्वक मंदिरों और प्रतीक चिन्हों को मिटाने की ही नहीं है, एक जयचंद 1193 में हुआ था और उसके बाद भारत ने कितने जयचन्द पैदा किये इसकी कोई गिनती नहीं है.
अगर जयचंद पैदा हुए तो एक से एक वीर योद्धा भी हुए जिनमें से एक थे हेमचन्द्र जिन्हे हेमू के नाम से भी जाना जाता है.
7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली की लड़ाई में अकबर को हराने के बाद इन्होंने अपना नाम हेमचन्द्र विक्रमादित्य रख लिया, परन्तु एक महीने बाद पानीपत के पास शोदापुर में अकबर के साथ युद्ध में ये मारे गए और अकबर के सेनापति बैरम खान ने इनका सिर काट कर अकबर को पेश किया.
जहाँ हेमू वीरगति को प्राप्त हुए थे वहाँ उनके प्रशंसकों ने 10 एकड़ ज़मीन पर उनका समाधि स्थल बनवा दिया था, फिर उसके बाद वहां कब हज़रत इमाम अबू कासिम बदरे आलम की दरगाह बन गयी किसी को पता नहीं चला.
नीचे दिए गए लिंक को जब आप खंगालेंगे तो आप पाएंगे कि इस ज़मीन के दो टुकड़े किये गए जिन्हें एक ही तारिख 19 दिसम्बर 1970 को सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को अलग-अलग दाम पर मस्जिद और दरगाह के नाम पर हरियाणा सरकार जिसमें चौधरी देवी लाल मुख्यमंत्री थे, ने बेच दिया और 1990 में ओमप्रकाश चौटाला के मुख्यमंत्री कार्यकाल में सरकार ने यह ज़मीन सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को रिलीज़ कर दी.
कहाँ गयी हेमू की समाधि की ज़मीन?
इस मुद्दे को कुछ दिन पहले श्री राम पुरोहित जी ने उठाया तो जैसा कि हिन्दुओं के साथ धार्मिक मुद्दों पर पुलिस करती है, वही किया, मुसलमानों ने खुले में मारा और पुलिस ने बंद कमरे में.
उत्तर प्रदेश का एक मुख्यमंत्री मस्जिद बचाने के लिए हिन्दुओं पर गोलियां चलवाता है, हरियाणा के दो मुख्यमंत्री मस्जिद और दरगाह बनाने के लिए हिन्दुओं के प्रतीक स्थलों की ज़मीन कौड़ियों के भाव मुसलमानों को बेच देते हैं.
तेलंगाना का मुख्यमन्त्री 12% मुसलमानों के लिए 12% का आरक्षण घोषित कर देता है, शायद कांग्रेस के प्रधानमन्त्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने गुरु तेगबहादुर, गुरु गोबिंद सिंह जी के नन्हे बच्चों का बलिदान भुला कर यह कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है, ये सब धर्मनिरपेक्ष हैं.
ये मुद्दे मूल निवासियों को भी नज़र नहीं आते क्योंकि इन मुद्दों को उठा लिया तो मुसलमान मित्र नाराज़ हो जायेंगे.
इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आप पर छोड़ रहा हूँ, कि हेमू की समाधि की ज़मीन का मालिकाना हक़ 19-12-1970 से पहले किसका था, जिससे यह ज़मीन सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने खरीदी और आज वहां मस्जिद और दरगाह चल रही है?
और अगर सरकार या पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यह ज़मीन सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को बेची थी, तो मान लीजिये कि हिन्दुओं में जयचंद अभी भी पैदा होते हैं, अब जयचंद एक शख्स नहीं रह गया है, यह एक संस्था हो गयी है.
इस हेमू समाधि के विचारोत्तेजक मुद्दे को संज्ञान में लाने और शोध के लिए श्री अजय पाण्डेय जी और श्री राम पुरोहित जी का हार्दिक आभार.
ये सब जानने के बाद कुछ हिन्दुओं के बारे में आपकी भी यही राय बनती होगी –
है यकीं उसने किया है वार पीछे से ‘शलभ’,
जाने क्यों लगता तुम्हारा हाथ होना चाहिए.