काल कौन-सा था, पता नहीं, शहर कोई जानता नहीं, लेकिन जब भी किसी की किसी से मुलाक़ात होती है तो सबकुछ समय से परे हो जाता है. हवाओं में कोई महक सी घुल जाती है, जो कभी खुशी की धूप बनकर ठण्ड से मौसम को आँगन में फैला जाती है तो कभी उदासी का घना कोहरा बनकर लिहाफ में दुबक जाती है.
लेकिन कभी-कभी जब किसी से मुलाक़ात होनी होती है तो मन की घुटन बदन से पसीना बनकर बहने लगती है और उसी की उमस का घेरा लिए कोई माहौल को भी उमस भरा कर देता है.
ऐसे ही माहौल में एक योगी, या हम उसे भोगी भी कह सकते हैं, (चूंकि घटना समय से परे है तो योगी या भोगी की कोई निश्चित परिभाषा देना यहाँ उचित नहीं होगा क्योंकि हर संत का एक अतीत होता है और हर डाकू का एक भविष्य) एक शिला पर बैठा ये सोच रहा था कि इस जीवन का मैं क्या करूँ? शिक्षा, भोग-विलास, दीक्षा के पड़ाव को पार करने के बाद भी जब मन की घुटन बदन से पसीने की तरह बहती जा रही है तो भला ये गंगा-स्नान मुझे कितनी देर तक स्वच्छ और शीतल रख पाएगा.
अर्थात योगी किसी नदी के घाट पर बैठा है और पानी में उठ रही लहरों का तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है. नदी की लहरों को ताकते हुए उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसमें से कोई एक लहर इतनी बड़ी हो गई है कि उसमें उसकी पूरी देह समा गई है और पानी में डूबते हुए उसका दम घुटने लगा है.
बहुत हाथ पैर पछाड़ने के बाद जब लगा कि अब बचने का कोई उपाय नहीं तो वह उठकर नदी की ओर दौड़ पडा और उसमें कूदने को ही था कि उसे लगा जैसे उसके पैरों को किसी ने छुआ… शरीर के वेग को जैसे किसी ने बलपूर्वक रोक दिया हो योगी को ऐसा महसूस हुआ. उसने जैसे ही नज़र नीचे डाली तो एक महिला उसके चरणों में झुकी हुई थी.
‘कौन हो देवी?’
‘एक अभागन, अपने पापों का प्रायश्चित करने आई हूँ. आप चेहरे से एक ओजस्वी पुरुष लगे तो लगा आपसे कदाचित कोई मार्गदर्शन मिल जाए.’
‘ओजस्वी!!!! खुद को ओजस्वी कहे जाने पर योगी को यूं लगा जैसे महिला उसका मज़ाक बना रही है. फिर भी अपनी व्याकुलता को चेहरे पर न लाते हुए वो बोला- ‘मार्गदर्शन? कैसा मार्गदर्शन?’
‘स्वामी, मुझे समझ नहीं आ रहा है, मैं इस जीवन का क्या करूँ? जैसा जीवन मैं जी रही हूँ, वैसे ही जीती रहूँ ये मानकर कि मेरे भाग्य में यही लिखा है या अपने कर्मों से अपने भाग्य परिवर्तन के लिए प्रयास करूँ? क्या आदमी के कर्म उसका भाग्य परिवर्तन कर सकते हैं? या जो भाग्य में लिखा है वही होकर रहता है और मुझे ऐसे हे जीते रहना होगा?’
योगी ने महिला को नख से शीश तक देखा. पैरों में बिछिया, पायल, कमर में करधनी, हाथों में लाल हरी चूड़ियाँ, मालाओं से लदी गर्दन, माथे पर बड़ी सी बिंदी लेकिन मांग में सिन्दूर नहीं. वेशभूषा से किसी संपन्न परिवार की शिक्षित महिला लग रही थी. वरना आम महिलाएं जीवन के सार और उसके जीने के कला की बात कहाँ करती है.
या तो वो अपने रूप-लावण्य को चिरंजीव बनाए रखने के उपाय खोजती रहती है या घर में अपनी स्थिति को लेकर असुरक्षा की भावना से घिरी रहती है. ऐसे में पूरी तरह साधन संपन्न होते हुए जीवन के विषय में इतने गहरे विचार रखने वाली इस महिला को देख योगी उसे एक टक देखता रह गया….
“आप इस रूप-लावण्य पर न जाएं स्वामी, ये तो वो बाहरी आवरण है जो मैंने अपनी आतंरिक वेदना को छुपाए रखने के लिए ओढ़ रखा है. ”
“तुम कौन हो देवी? और तुम्हें भी जीवन से इतनी शिकायत क्यूं है?”
महिला का ध्यान उस ‘तुम्हें भी’ की ओर गया तो सही लेकिन उसे लगा योगी के पास उसकी तरह और भी कई निराश व्यक्ति आते होंगे इसलिए उन्होंने ‘भी’ का उपयोग किया.
“स्वामी मैं इस नगर की नगरवधू हूँ, जो अब नदी के समीप उस काली के मंदिर की देवदासी है, जिसे कभी-कभी जद्दन बाई के कोठे पर नृत्य करने के लिए बुलाया जाता है तो कभी-कभी उस शराब खाने में लोगों को शराब पिलाने के लिए…”
“ये कैसे हो सकता है, एक ही समय में इतने सारे नाम और काम एक साथ?”
“नहीं स्वामी ये एक ही काल की बात नहीं है, मैं तो कई जन्मों की बात कर रही हूँ. जिस दक्षता और तन्मयता से मैं ये काम करती हूँ मुझे लगता है मैं कई जन्मों से यही करती आ रही हूँ… मैं ही किसी काल में नगरवधू थी, किसी काल में देवदासी, किसी काल में तवायफ और अब….”
“तुम ऐसा कैसे कह सकती हो? अपने पिछले जन्मों के बारे में जानना इतना आसान नहीं होता…. उसके लिए बहुत तपस्या करनी होती है… हम साधु सन्यासियों की तरह साधना करनी होती है….”
“और ये तपस्या, ये साधना किस तरह की जाती है स्वामी?”
“परमात्मा का ध्यान करके, सत्कर्मों से…”
“और ये सत्कर्म क्या होता है?”
“एक ऐसा कर्म जिससे किसी और को हानि न पहुंचे और…?
“और?”
“और दूसरों को प्रसन्नता और सुख मिले…”
“मैं जो काम करती हूँ उससे किसी को कोई हानि नहीं होती, बल्कि मेरे पास आकर लोग अपने जीवन की परेशानियों से थोड़े समय के लिए मुक्ति ही पाते हैं. मैं अपने पूरे मन से उनको प्रसन्नता और सुख देने का प्रयास करती हूँ. तो क्या मेरा कर्म सत्कर्म नहीं है?”
योगी कुछ और कहता उसके पहले ही वो फिर बोलने लगी- “और जहां तक परमात्मा के ध्यान और साधना का प्रश्न है वो तो मैं पूरे समय करती रहती हूँ. जो भी मैं करती हूँ या जो भी मैं हूँ उसके लिए मैं परमात्मा को सतत धन्यवाद देती रहती हूँ कि कम से कम उन्होंने मुझे इतना रूप दिया है जिससे मैं औरों को आनंदित कर पाती हूँ उन्हें अपने जीवन की कुरूपता से थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन दूर ले जा पाती हूँ. मुझे उसने अपने पिछले जन्मों के कर्मों के बदले कुरूप या अपाहिज नहीं बनाया. इसका अर्थ यही हुआ ना कि जो कुछ मैं कई जन्मों से करती आ रही हूँ वो उसे दुष्कर्म नहीं मानता…..”
“पिछले जन्मों के कर्म? तुम कैसे इतने विश्वास के साथ अपने पिछले जन्मों के कर्मो-दुष्कर्मों की बात कर सकती हो? क्या तुमने कोई तपस्या….?”
“क्या अपने कर्मों को बिना कोई शिकायत के किए जाना एक तपस्या नहीं? क्या तपस्या वन या पर्वत पर जाकर आँख बंद कर प्रभु को स्मरण करते रहने को या एक पैर पर खड़े होकर करने को ही कहते हैं? क्या आम जीवन जीने और उसके उतार-चढ़ाव के साथ तादात्म्य बनाए रखना तपस्या नहीं?”
“जब इतना जानती समझती हो तो किस पाप का प्रायश्चित या मार्गदर्शन चाहती हो?”
“वही तो नहीं जानती स्वामी. क्या इस जन्म में भी ऐसे ही जीते रहना है या जिन कर्मों के बदले में ऐसा जीवन मिला है उसका प्रायश्चित करना है? कृपया बताएं स्वामी….”
योगी अचंभित था…. उसे लगा जैसे वो किसी नगरवधू या देवदासी के सामने नहीं किसी विदुषी के सामने खडा है. ऐसे कई उलझे हुए प्रश्नों के उत्तर जो आज तक वो खुद नहीं जान पाया था उसे कितने सहज शब्दों में उस स्त्री ने सुलझा दिए थे. फिर भी चेहरे पर अपने भगवा वस्त्रों की गरिमा लाते हुए वो बोला- “लेकिन तुमने बताया नहीं कि तुम अपने पिछले जन्मों के कर्मों के बारे में इतने विश्वास से कैसे कह सकती हो?”
“स्वामी मैं नहीं जानती पिछले जन्मों के कर्मों के बारे में लेकिन मुझे अक्सर एक जैसे स्वप्न आते हैं, जिनमें कभी मैं किसी नगर की नगरवधू हूँ, किसी मंदिर में देवदासी, कभी कोई तवायफ…. ”
“स्वप्न हमेशा सच नहीं हुआ करते.”
“अर्थात कभी-कभी सच भी होते हैं…..???”
“हाँ, कभी-कभी”
“स्वामी एक स्वप्न और है जो मुझे अक्सर आया करता है, लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि वो किस काल का है.”
“कैसा स्वप्न!!”
“मैं अपने को किसी पुरुष की वेशभूषा में देखती हूँ, हूँ मैं महिला ही परन्तु वेशभूषा पुरुषों के समान है, बाल मेरे कन्धों तक और सुनहरी है, और एक पुरुष और दिखाई देता है मुझे जो…..”
“जो गेरुआ वस्त्र पहने हैं, जिसके गले में काले मनकों की माला है, जिसमें किसी सफ़ेद दाढ़ी वाले सन्यासी की तस्वीर है….”
“जी………. स्वामीजी …. आप कैसे जानते हैं!!!!!!!!”
योगी कुछ न कह सका…. उसकी आँखों से अश्रुधारा यूं फूट पड़ी जैसे मन की घुटन की सीमा टूट गयी हो और वो आँखों से बह कर उसकी देह और उसके आसपास के वातावरण को शीतल कर रही हो. उस ठंडी बयार का अनुभव उस महिला ने भी किया… वो कुछ समझ पाती या कुछ कह पाती उसके पहले योगी जल समाधि ले चुका था… बस उनके आख़िरी कुछ शब्द उस स्त्री के कानों तक पहुंचे- “”””””’मैं जा रहा हूँ नंदिनी…. जल्दी आना……”
(इस जन्म में केवल एक स्पर्श मिलेगा… वो भी तुम्हारे अनुरोध पर…. दोबारा किया गया स्पर्श कई जन्मों तक की विरह का कारण बन सकता है… समय बहुत कम बचा है…. इस बार की इस समय की मृत्यु तुम्हें शीघ्र ही उससे मिलवा देगी…. कर सकोगे नचिकेत?
हाँ गुरूदेव आपकी कही हर बात को घटित होते देखा है… मृत्यु का मुझे तनिक भी भय नहीं… मैं विचलित हूँ इस प्रतीक्षा से…. अब मुझसे नहीं होती गुरूवर…
ठीक है जाओ नदी की ओर… तुम्हारे जीवन के कुछ पल बचे हैं उसे भी उसकी प्रतीक्षा में लगा दो, जिसके लिए इतने जन्मों तक भटके हो… अगले जन्म में तुम उसे पा लोगे… यदि पाना ही एक मात्र उद्देश्य है…
मैं नहीं जानता गुरूदेव कि पाना ही उद्देश्य है या नहीं लेकिन ये प्रतीक्षा और उसकी बेचैनी का निवारण मैं चाहता हूँ….
तो जाओ वत्स…. वो भी तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है… उस आशीर्वाद के फलीभूत होने की जहां उसका पति उसका सौवां पुत्र होगा.)
एक बार का स्पर्श……….. तभी कर लिया था जब स्त्री ने योगी के पाँव छुए थे… अब योगी के पास सिवाय अगले जन्म की प्रतीक्षा के कुछ नहीं बचा था…. नदी ने उसे अपनी बांहों में पनाह दे दी थी और आत्मा को खोज, एक कोख की, वो भी उस काल में जिस काल में नंदिनी का जन्म होना था.