भारत में 5 करोड़ 67 लाख लोग जी रहे हैं डिप्रेशन में!

विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने अपनी ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में जानकारी दी है कि दुनिया में लगभग 32 करोड़ 30 लाख लोग “मानसिक अवसाद” अर्थात ‘मेन्टल डिप्रेशन ‘ से पीड़ित हैं. इनमें से आधे से अधिक डिप्रेशन के मरीज भारत, चीन सहित दक्षिण पूर्वी एशिया और प्रशान्त महासागर क्षेत्र में रहते हैं.

मानसिक अवसाद के मरीजों में पिछले दस सालों में लगभग 18.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. हमारे भारत में इस समय “5 करोड़ 66 लाख 75 हजार 969 डिप्रेशन के मरीज मौजूद हैं जो कि पूरी आबादी के साढ़े चार प्रतिशत हैं. मानसिक अवसाद के इन मरीजों के अलावा भारत में सदैव मानसिक तनाव और चिन्ताओं में घिरे रह कर जीवन यापन करने वाले लाचार अभागे लोगों की सँख्या भी 3 करोड़ 84 लाख 25 हजार 093 है. यह आंकड़े भी आबादी के करीबन तीन प्रतिशत हैं.

यह भी एक अति सोचनीय मुद्दा है कि मेन्टल डिप्रेशन के कारण एक करोड़ से ज्यादा लोग लगभग पूरी तरह से अपंग होते जा रहे हैं और इनकी संख्या दिनों दिन 2.5% की दर से प्रति वर्ष बढ़ती जा रही है.

असल में मेन्टल डिप्रेशन अवसाद की एक ऐसी स्थिति होती है जो धीरे धीरे एक स्थाई मानसिक बीमारी का रूप ले लेती है. इस बीमारी में मरीज को उदासीपन बना रहता है, वह सबके बीच होते हुए भी मानसिक उधेड़बुन में उलझा रहता है. अपने आप को अकेलेपन में महसूस करने लगता है.

अवसाद में होने के कारण उसे सब जगहों से निराशा लगने लगती है. उसे लगता है कि लोग उसका पूरा सम्मान नहीं कर रहे हैं, इसके कारण डिप्रेशन का व्यक्ति भीतर ही भीतर मन ही मन अपने में घुटन सी महसूस करता है. स्वंय को कमरे में बन्द कर लेता है. समाज और, लोगों से पूरी तरह कट आफ होजाता है, किसी से मिलता जुलता नहीं है. ज्यादा समय नींद में सुस्त पड़ा रहता है. भूख नदारद हो जाती है. चेहरे की रौनक गायब हो जाती है. नकारात्मक विचारों में डूबा रहता है. अच्छी चीजों में भी उसे भरपूर बुराइयां नजर आने के कारण मन ही मन डरता घबराता रहता है.

मरीज जब लम्बे समय तक ‘अवसाद’ में रहता है तो वह मानसिक रूप से टूट कर मनोरोगी बन जाता है. पुरूष जब मेन्टल डिप्रेशन में रहते हैं तो वह थके हुए नजर आते हैं. चिड़चिड़े हो जाते हैं. नींद नही आने से कभी कभी चिन्ताओं से निकल पाने में अपने आप को असमर्थ पाकर गुस्सैल होकर पत्नी या बच्चों पर गुस्सा निकालते है. कई बार हिंसक, और आक्रामक भी होने लगते हैं. अपने काम और दिनचर्या में लापरवाह होकर शराब और सिगरेट के आदी हो जाते हैं. यह सब मानसिक विकृति के रूप में जब स्थाई बीमारी का रूप ले लेते हैं तो ऐसे आदमी ज्यादातर आत्महत्या करने के लिए उत्प्रेरित हो जाते हैं.

महिलाओं में पुरूषों की अपेक्षा डिप्रेशन के चान्सेज दुगने होते हैं. अक्सर उनके मासिक धर्म में अव्यवस्थता या हारमोन्स के कम ज्यादा अनिंयन्त्रित प्रवाह के फलस्वरूप भी अवसाद की स्थिति बन जाती है. महिलाओं में खास कर निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं में तर्कपूर्ण सोच और विवेक पूर्ण निर्णय लेने में जब कमी आजाती है तो आर्थिक, सामाजिक पारीवारिक उलझनों से घबराकर उनमें गहरा अवसाद उत्पन्न हो जाता है. गंभीर अवसाद की हालत में क्षणिक आवेश के वशीभूत होकर अक्सर महिलाएं आत्महत्या तक करने का प्रयास कर बैठती हैं.

किशोरावस्था में और वृद्धावस्था में अवसाद की स्थिति अधिक कष्टदायी होती है जब ग्रसित व्यक्ति परेशान होकर आत्म हत्या कर लेता है. पूरी दुनिया में लगभग आठ लाख लोग एक साल में आत्महत्या कर लेते हैं पर आश्चर्य की बात है कि आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा लोग 15 वर्ष से लेकर 29 वर्ष की आयु के सर्वाधिक पाये गए हैं.

WHO की माने तो निम्न और मध्यम आय वर्ग के लोगों में प्रति एक लाख लोगों में पांच लोग अवसाद से ग्रसित होकर आत्म हत्या कर रहे है. जबकि युरोपीय और अमेरिकन देशों में प्रति एक लाख उच्च आय वर्ग के लोगों में चार गुना अधिक यानि 20 लोग आत्महत्या कर रहे हैं. इसका मतलब है कि पूरी दुनिया में प्रत्येक चालीस सेकण्ड़ के समय में कहीं न कहीं एक आदमी आत्महत्या करके मर रहा है.

अवसाद पूरी तरह मनोरोग होता है. चिकित्सा विज्ञान में ज्यादातर नींद की या एण्टीडिप्रेशन की दवाइयां दी जाती हैं उनसे डिप्रेशन तो दूर नहीं होता बल्कि आदमी और कमजोर होकर मरियल हालत में दिन काटने के लिए मजबूर हो जाता है.

डिप्रेशन से बचने के लिए सबसे अच्छी चीज है अपने आपको रूचिपूर्ण कार्यों में इतना व्यस्त रखिये कि फालतू कोई चीज दिमाग में कभी प्रविष्ट ही न हो. ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनमें जब व्यक्ति बहुत होशियार या इन्टेलिजेन्ट होता है और जब उसे उसके उपयुक्त समाज से रिटर्न नहीं मिलता तो वह टूट जाता है. तथा पस्त होकर डिप्रेशन में आ जाता है.

चिकित्सा विज्ञान और मनोरोग विज्ञान में अनेकों प्रकरण देखने को मिल जाते है जिनसे यह सिद्ध होता है कि डिप्रेशन कोई रोग नहीं है , यह व्यक्ति की अपनी दिमागी उपज है. इसकी सबसे कारगर दवा गोली इन्जेक्शन नहीं है. स्वंय में आत्म विश्वास पैदा करने की कला है. मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए यदि व्यक्ति सदैव सकारात्मक सोचे और गीता के उस श्लोक में आस्था रखें जिसमें कहा गया है ” “”कर्मणयेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सड्:गोऽस्त्वकर्मणि..”” तो मानसिक अवसाद कभी नहीं होगा.

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