रात 3 बजे थे. मेडिकल कॉलेज के आकस्मिक चिकित्सा विभाग में रोज़ की ही तरह तीन चार मरीज़ लेटे थे. गंभीर मरीजों को स्थिर कर जूनियर डॉक्टर वार्ड जा चुके थे और दोनों सफ़ेद साड़ी वाली नर्स कुर्सी पर बैठी थीं. एक सीनियर नर्स थी एक नयी लड़की थी.
दिसम्बर की कड़कड़ाती ठण्ड थी. दोनों ने वार्ड बॉय से चाय मंगवाई थी. कुछ यहाँ वहां की बातें कुछ डॉक्टरों और साथी नर्सों के गॉसिप कर खिलखिलाई थीं. किसी को “बड़ी दंदी फन्दी औरत है रे वो, उससे दूर ही रह जैसा भी कुछ कहा था.” ड्यूटी पर मौज़ूद डॉक्टर के लिए कहा था सीनियर नर्स ने “देखना, आज ये ड्यूटी पर है रात बेकार जायेगी.”
क्यों दीदी? छोटी नयी नर्स ने पूछा था.
अरे दारू पी कर आता है सुबह से. और कोई काम नहीं आता इसे, न जाने किसने डॉक्टर बना दिया वो भी मेडिकल का . रात भर ड्यूटी रूम में पड़ा रहेगा टुन्न.”
” लेकिन शायद अब कोई इमरजेंसी न आये , तू सुस्ता ले छुटकी”.
“नहीं दीदी ठीक है न , आप आराम कर लो.”
“अरे कर ले आराम यहाँ कोई भरोसा नहीं , कौन कब मरने आ जाये.
टेबल पर सर रख के नींद ले ले. जगा दूंगी कोई आया तो.”
अच्छा मैं कौन हूँ?, जो आपको यह कहानी सुना रहा हूँ . मैं पंखा हूं, सालों से उन कुर्सियों और टेबल के ऊपर लगा हुआ रूफ से. नर्सेस के कितने ही बैच देखता रहा हूँ. रोज़ाना आकस्मिक चिकित्सा की अज़ीबो ग़रीब दास्ताँ देखते रहा हूँ. चुपचाप, ऊपर गोल गोल घूमते हुए, कभी बिना चले चुपचाप.
दिसंबर 14 की यह ठंडी रात. मैं शांत था, मेरा कोई काम न था इस ठण्ड में. सभी आवाज़ें साफ़ सुनायी दे रही थीं, मेरे पास लगी दीवार घड़ी की टिक टिक भी. वही घड़ी जिसे मैं देखता रहता प्यार से लेकिन उसने कभी भाव न दिया. कभी उसे अपने पंखे तेज़ घुमा इम्प्रेस भी करता और कहना चाहता देखो ऐसे घूमते हैं गोल तुमसे धीमे धीमे नहीं. लेकिन वो एक न सुनती. घड़ी बड़ी निर्लिप्त और अनवरत थी न मौसमों के लिए रुकती न मृत्युओं के लिए.
इस रात में एक अज़ीब मनहूसियत थी. शहर से दूर बने अस्पताल की मनहूस कैजुअल्टी में मनहूसियत कोई नयी बात नहीं थी. क्रंदन, रूदन, चीखें,गुस्से, झगड़े, लफड़े, मौतें कितनी ही तो देखी थीं मैंने भी, उन चिकित्सकों, नर्सेस और वार्डबॉय के संग. लेकिन चिकित्सक, नर्स, वार्डबॉय की ही तरह मुझे भी ये चीखें, मौतें, मनहूस न लगतीं. मनुष्य के मन में संवेदनाओं का एक कोटा होता होगा शायद, धीमे धीमे खर्च कर लो या एक साथ.
शुरू शुरू में मुझे लगता था मौत घोषित करने के कुछ ही देर बाद ये सारे चाय के कप के साथ बातें और ठहाके लगाते कैसे दिख जाते हैं. लेकिन 5 मौत देखने के बाद तो मैं भी बेपरवाह हो चुका था उनके ठहाकों पर मुस्का लिया करता.
लेकिन फिर भी आज की यह ठंडी रात कुछ ज़्यादा ही मनहूस थी.
कांच की बंद धुंधली, कहीं कहीं टूटी खिड़कियों से बाहर का काला अन्धकार दिख रहा था. दूर से आती, पीली मर्करी की रोशनी अंधकार, कोहरे और सन्नाटे से मिल एक भुतहा सा कॉकटेल बना रही थीं.
छुटकी नर्स कुर्सी पर बैठे बैठे टेबल पर सर झुका सुस्ताने लगी थी.
सीनियर नर्स एक बार फ़िर उन तीन मरीजों को देखने चले गयी थी.
मेरे पास ही लगी दीवार घड़ी रात के पौने चार बजे दिखा रही थी. कुछ ही देर में दूर से मंदिरों की घंटियों, अजानों , मरीजों की अफ़रातफ़री, चिड़ियों की चहचहाट कुछ देर में सुनाई देने वाली थीं रोज़ाना की तरह.
लेकिन अभी तो बस कुछ कुत्तों के भौंकने की आवाज़, घड़ी की टिक टिक की आवाज़ सुनाई दे रही थी. सब शांत था. सन्नाटे की आवाज़ महसूस की है कभी? सन्नाटा बाहर शांत दिखता है लेकिन भीतर शोर मचाता है.
लेकिन ये क्या अचानक कुछ लोग बदहवास से किसी को लेकर आये थे. बेहद गंभीर एक्सीडेंट के बाद.
उन्हें देखते ही नर्स ने पहचान लिया था खुद इसी मेडिकल कॉलेज के डीन थे. साथ में डीन सर के बेटे बहू और पत्नी थे.
रोते, बदहवास से खड़े हुए.
बेहोश, खून से लथपथ, सांसें ठीक से नहीं चल रही थीं.
छोटी नर्स भी तुरंत उठ गयी थी. उन्हें लिटा कर ऑक्सीजन लगा दिया था. सर पर रक्तस्राव की ज़गह कॉटन रख दबा कर रखा था.
वार्ड बॉय को तुरंत डॉक्टर को बुलाने कहा था.
डॉक्टर सत्यम ड्यूटी रूम से तुरंत आ गए थे. छुटकी नर्स ने दारू की स्मेल महसूस की थी “दीदी ने सही कहा था ये तो ड्यूटी पर तक पी लेते हैं.”
लेकिन खुद डीन सर को इस हालत में देख उनके भी होश उड़ चुके थे.
सीनियर नर्स ने कहा था सर तुरंत इंटुबेट करना होगा सांसें ठीक नहीं हैं. ऑक्सीजन का स्तर ब्लड में कम होता जा रहा है.
डॉ सत्यम ने कभी इंटुबेट करना सीखा नहीं था. साथ ही ये शुरुआती कुछ मिनट ही बेहद महत्वपूर्ण थे बची सांसों को बचाने.
लेकिन इस समय वे कैसे किसी से कहते कि मुझे यह नहीं आता जो जान बचाने का पहला कदम हो इस स्थिति में? उन्होंने सांस नली में डालने वाली नली ली और कोशिश शुरू की. साथ ही अन्य डॉक्टर्स, मेडिसिन, सर्जरी, एनेस्थीसिया, क्रिटिकल केअर के चिकित्सकों को बुलाने के लिए सिस्टर को कहा था. छुटकी नर्स ने सभी जरूरी कॉल कर दिए थे.
पूरे कॉलेज, होस्टल्स, सब जगह डीन सर की इस हालत की ख़बर पंहुच चुकी थी.
अगले 10 मिन में ही अन्य फैकल्टी के डॉक्टर आ चुके थे.
ऑक्सीजन का स्तर 0 पर था और धड़कन भी शून्य थी.
डॉ सत्यम अम्बुबैग से सांस, स्वांस नली में डाली गयी ट्यूब से रहे थे.
डॉक्टर्स , छात्रों का जमावड़ा कैजुअल्टी में होने लगा था.
क्रिटिकल केअर कंसलटेंट ने देखा था, सांस नली (ट्रेकिआ) की ज़गह ट्यूब खाने की नली (इसोफैगस) में थी. आख़िरकार डीन सर को बचाया नहीं जा सका था.
मैंने और उस घड़ी ने बहुत केस देखे थे आजतक इस कैसुअल्टी में, मरते भी जीते भी. बहुत डॉक्टर देखे थे दिन रात मेहनत करते. लेकिन आज जो देखा और सुना था वह सबसे ज़ुदा था.
जब सब रो रहे थे क्रिटिकल केअर कंसलटेंट आ कर कुर्सी पर बैठ गए थे मेरे ही नीचे. इशारे से डॉ सत्यम को बुलाया था और पूछा था वो किस स्थिति में लाये गए थे सर, क्या हुआ था?
अंत में कहा था डॉ सत्यम ट्यूब सही ज़गह नहीं थी और आप अम्बु किये जा रहे थे. आप आकस्मिक चिकित्सा अधिकारी हो और आप ट्यूब सांस नली में डालना नहीं सीख पाये? आप के मुंह से शराब की स्मेल आ रही है. ड्यूटी पर?
आपको आख़िर किसने सेलेक्ट किया था इस महत्वपूर्ण पोस्ट के लिए.
डॉ सत्यम घबराये हुए सर नीचे कर खड़े थे.
डॉ सत्यम ने कुछ कहा नहीं था लेकिन कुछ चित्र उनके मस्तिष्क में उभरे थे. जिन्हें सिर्फ मैं देख पाया था. ये चित्र देख मुझे लगा अरे ये तो पूरी दुनिया मुझ पंखें सी ही गोल है.
सत्यम का सेलेक्शन डीन सर ने ही तो किया था. हाँ बिना किसी मेरिट के. सत्यम से कहीं ज़्यादा मार्क्स और अच्छे इंटरव्यू के बावजूद कुछ अन्य साथी चयनित नहीं हो पाए थे.
वो पापा के दोस्त जो थे. हाँ वह चयन था, डीन सर ने किया था जीवन को हरा मृत्यु का चयन.
मेरा स्विच ग़लती से किसी ने चला दिया था और मैं घूमने लगा था गोल गोल फिऱ से. इस दुनिया की तरह गोल गोल.