काशी… बनारस… वाराणसी…

इन दिनों खामोश है काशी
बेचैन है बनारस
और उद्वेलित है वाराणसी

भीड़ बहुत है
जो नहीं आई है शिव खोजने
वे यहाँ मर कर
मुक्ति पाने भी नहीं आए हैं
पाण्डवों की तरह ब्रह्म-हत्या का
पाप धोना भी
उनका निमित्त नहीं है

कोई नहीं पूछता सवाल
ऋग्वेद की किस ऋचा में
वर्णन है काशी का?

कोई नहीं जानना चाहता
कहाँ है सारनाथ
जहाँ बुद्ध ने दिया था
अपना पहला उपदेश
और जिन्हें खोजता हुआ
चीन से चला आया था ह्वेन-सांग

क्या यहीं हुए तीर्थंकर पार्श्वनाथ
जो दिखा गए
अहिंसा का अदम्य रास्ता

उन्होंने तो यह भी नहीं पूछा
कौन थे कुतबुद्दीन ऐबक
फिरोज़ शाह या सिकंदर लोधी
जिन्होंने तोड़ डाले थे कई हज़ार मंदिर
मगर फिर भी बेघर नहीं हुए शिव

उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा
कहाँ रखी है तुलसी की रामचरित मानस,
किस गली में होगा तुलसी मानस मंदिर?
कहाँ रमते थे कबीर और रैदास?
क्या यहीं आए थे आदि शंकराचार्य
शिव को खोजते हुए?

उन्होंने कब जानना चाहा
शास्त्रीय संगीत के बनारस घराने के बारे में
किसी से नहीं पूछा
काशी-विश्वनाथ के किस दालान में
शहनाई बजाते थे बिस्मिल्लाह खाँ?

उनमें से कई ले रहे थे
काशी, मथुरा और अयोध्या के नाम
पर वे भूल चुके थे
गया, कांची, अवंतिका और द्वारका के बिना
पूरी नहीं होती यह यात्रा;
शायद अभी उन्हें
मोक्ष की आवश्यकता ही नहीं है

आया तो यहाँ मार्क-ट्वेन भी था
जिसने कहा था – इतिहास, परम्पराओं
और किम्वदंतियों से भी
दो गुना प्राचीन है बनारस
यहाँ शिव ही नहीं मानवता का भी वास है!

इस अजनबी भीड़ को देख कर
मुस्कुराते हुए,
मंथर गति से बह रही है गंगा

नावों में लदे हैं
मलंग छोकरे
हाथों में बीयर की बोटलें लिए

हैरान हैं भिखमंगे
कर रहे हैं कोई अटपटा-सा विमर्श
ज़रूर वे खोज रहे हैं सत्ता की चाबी
अपने खाली कटोरों में.

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