कटहल का धरती पर गिरना

“धप्प” से धरा पर गिरा
मुर्श‍िदाबाद वाले मुखर्जी मोशाय
की बगीची में गाछ पर
भरपूर पका कटहल!

अति “बृहत्फल” था
हरी कीलों औ पीले गूदे से भरा
“धप्प” से गिरने के शब्द से
सशंक हो उठीं गिलहरियां
जैसे पखावज के वामांग पर
पड़ी हो “एकताल” की “सम”
या आषाढ़ की मेघमाला में
“देव-दुंदुभि” का घोष!

निमिषभर को “शेष” के
फन पर दोल गई पृथिवी
अट्ठाइस सेर से कम का तो
क्या रहा होगा वह
“संथाल परगने” का
कांटाल फल!

धरा पर गिरा और फट गया
ऐसे जैसे कि भरपूर पकने पर भी
क्या फटते होंगे दाड़िम!
सेब के गिरने भर पर जिन्होंने
खोज निकाला था “गुरुत्वाकर्षण”
उन्होंने कभी देखा नहीं होगा
गाछ से कटहल का गिरना!

कितना रस, कितनी सम्पृक्त‍ि!
गंधमादन बन गई है “गांगुलीबाड़ी”
वैशाख की धूप से पका फल था
वायु में पसर गई है इतनी मीठी गंध
जिसे मन को ख़ूब बेकल कर देने में सिद्धि‍!

थोड़ा आम थोड़ा अनानास
थोड़े बिल्व-गूलर की मिली-जुली
कटहल की वह गंध इतनी बौराई
कि त्वचा पर ततैयों के चुंबनों
की अनुभूति रोमावलियों पर
जैसे चू रहा हो शहद का छत्ता!

विनय सीखना हो तो सीखो
फलों से लदे दबे-झुके गाछ से
धैर्य धरा से व्याप्त‍ि मुखर्जी मोशाय
के यशस्वी आम्रकुंज से.
और सीखना हो संतोष
तो सीखो कटहल के फल से
जो अपने में इतना संपूर्ण
इतना निमग्न और
इतना आत्मविभोर!

धरा पर “धप्प” से गिरा
कोई अट्ठाइस सेर का वह कटहल
धुरी पर दोल गई पृथिवी.
फटकर बिखर गया रस, बीज, रेशे
पंचांग डाक रहा था “पोचिशे बोइशाख” की तिथि
मुर्श‍िदाबाद की मंडी में एक सौ बीस टाका
से कम नहीं लगता उसका मोल
किंतु किसे परवाह धरा पर गिरा है
धूप में सींझ रहा है बंगभूमि के रस का
वह वानस्पतिक वैभव!

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