रिपब्लिक टीवी के आने के इंतज़ार का पूरा बिल्डअप वैसे ही था जैसे एप्पल के नए आईफ़ोन का होता है. आईफ़ोन की सूचना तो लीक हो जाती है आजकल लेकिन अर्णब जैसे आया है, वो पुराने आईफ़ोन की याद दिलाता है. धमाके के साथ और क्रेडिबल फ़ीचर के साथ.
इससे किसको क्या फ़ायदा होगा, वो तो अलग बात है. लेकिन जो अर्णब को तरह-तरह के उपनामों और विशेषणों से सँवारते रहे हैं, उनके लिए एक सीख है कि फ़र्ज़ी पत्रकारिता के चक्कर में, मालिकों के दबाव में ज़मीर बेचने वाले पत्रकार, बहुत सारे मुद्दे पड़े हैं.
अगर ये मुद्दे छोड़कर आप लाउडस्पीकर, टोपी, तिलक, योगी का ब्रेकफ़ास्ट करते रहिएगा तो लोग वहाँ चले जाएँगे जहाँ मुद्दों की बात हो रही है.
हालांकि, आप ये कह सकते हैं कि ये तो पहला ही दिन है. आपकी बात सही है. लेकिन मेरा ये कहना है कि मुद्दे देश में पड़े हैं, लेकिन कितने पत्रकार उस पर चर्चा कर रहे हैं? राजनीति एक मुद्दा जरूर है लेकिन योगी क्या खाता है, तमिलनाडु में डील हुई कि नहीं, ये मुद्दे राजनैतिक कहीं से भी नहीं हैं, जिन्हें लोग जानकर लाभान्वित होंगे.
मुद्दे वही सही हैं जिससे समाज को फ़र्क़ पड़ता है. फ़र्क़ सिर्फ सूचना पहुँचने वाला नहीं कि हमको तो ये जानना है कि योगी क्या खाता है. फ़र्क़ पड़ने का मतलब है कि वृहद् समाज को आपकी ख़बर से क्या मिलता है सिवाय सूचना के. पत्रकारिता का मतलब महज़ सूचना देना नहीं है. सूचना देना पत्रकारिता का सिर्फ एक, वो भी बहुत छोटा, पहलू है. उस सूचना से क्या होता है, ये ज़्यादा ज़रूरी पहलू है.
जो नेता, व्यक्ति आदि जो कार्य कर रहा है, उससे समाज पर कितना असर होता है, ख़बर वो है. चर्चा उस पर होनी चाहिए. चर्चा इस पर होनी चाहिए कि बजट पास होने के बाद पैसा कहाँ जाता है. वो कहाँ ख़र्च हो रहा है, कैसे ख़र्च हो रहा है. चर्चा इस पर होनी चाहिए कि कॉलेजों, स्कूलों में शिक्षा का स्तर कैसा है, क्यों है. ना कि ये कि कौन से चार चिरकुट किसको आने से रोक रहे हैं. वो काम प्रशासन का है, राष्ट्रीय परिचर्चा का नहीं.
पत्रकारिता की प्राथमिकताएँ बिल्कुल ही इतर हो चुकी हैं. किसी को कोई मतलब नहीं कि इससे समाज में कितना असर हो रहा, क्या बदलाव आ जाएगा. #रिपब्लिक_टीवी इसमें क्या कर लेगा, ये तो देखने की बात है. अगर ये भी वही करने लगे जो बाक़ी लोग अपने अजेंडा लेकर करने लगते हैं, तो इनके दर्शकों को भी वहीं निराशा होगी जो रवीश को घिघियाते देखकर हिन्दीवालों को होती है.
आज के समय में ये प्रोफ़ेशन अपना स्तर गिरा कर मजाक जरूर बन गया है लेकिन वो ख़बर जो समाज के लिए ज़रूरी है, उसको पाने के लिए प्राइवेसी कानून टूटते हों, तो भी मुझे नहीं लगता कि पत्रकार इसके लिए दोषी है.
कानून पर मेरी बहुत ज़्यादा पकड़ नहीं है, लेकिन कोर्ट जाने पर लालू को ही लताड़ पड़ेगी. बात प्राइवेसी तोड़ने की नहीं है, बात है ‘ग्रेटर गुड’. यहाँ लालू की बात जेल में बैठे एक क्रिमिनल से हो रही है जो कि सरकार को जलाने की बात कर रहा है. इसलिए यहाँ आपका प्राइवेसी वाला तर्क नहीं चलेगा. क्योंकि ना तो आदमी प्राइवेट बात कर रहा है, ना ही दोनों आदमी प्राइवेट आदमी हैं.
#अर्णब भी आदर्श पत्रकार नहीं हैं, लेकिन कम से कम बिके हुए तो नहीं लगते. आदर्श से मेरा मतलब है कि जो सामाजिक परिभाषाएँ बनाई गई हैं, उसके हिसाब से वो नहीं चलता. शायद ज़रूरत भी नहीं. मुझे राष्ट्रहित के मुद्दों पर, सेना के मुद्दों पर एक स्टैण्ड लेकर खड़ा होना सटीक और सराहनीय लगता है. इसमें कोई दोराय नहीं कि देश का नाम लेकर उसे तोड़ने की बात करना अभिव्यक्ति नहीं, देशद्रोह है. इस पर दूसरा पक्ष हो ही नहीं सकता.
इसीलिए मुझे #रिपब्लिक से काफ़ी उम्मीदें है.