मैं कानूनविद् नहीं हूँ. संविधान, या दंड प्रणाली का भी बहुत ज्ञान नहीं है. लेकिन एक बात मुझे, हम्मुरावी कोड ऑफ़ लॉ के समय से ही, परेशान करती है वो ये है कि जुर्म की सज़ा कितनी हो, कैसे तय होती है.
चोरी, डकैती, क़त्ल, झूठ बोलने, धाँधली करने आदि की सज़ा तक तो सामान्य बुद्धि लगाकर समझ में आ जाता है. चोरी का पैसा लौटाओ, कुछ साल जेल में गुज़ारो. वैसे ही धाँधली में. क़त्ल किया तो या तो सज़ा-ए-मौत या फिर आजीवन कारावास. ये भी समझ में आता है.
लेकिन बलात्कार के लिए सात साल की सज़ा किस बात का द्योतक है? यहाँ तो लगता है कि दंडविधान बनाने वाले सारे मर्द ही थे और उन्होंने बहुत ही आसानी से सात साल की सज़ा लिखकर मानवता के बहुत बड़े अपराधी को यूँ ही छोड़ दिया.
इससे तो पितृसत्तात्मक विधान की सड़ाँध आती है. बलात्कार तो क़त्ल से ज़्यादा संगीन जुर्म है क्योंकि क़त्ल के बाद इन्सान मर जाता है, लेकिन बलात्कार के बाद इन्सान मृत अवस्था में ज़िंदा रहता है. उसको ये समाज ज़िंदा ही नहीं रखता, ज़लील भी करता है.
बलात्कार की दो ही सज़ा मेरी समझ में आती है: रासायनिक बंध्याकरण और जेल; या फाँसी या आजीवन क़ैद.
इसमें ये दोष जरूर है कि कोई निर्दोष भी इसमें फँस सकता है. तो वो तो हर तरह के अपराध के साथ होता है. बलात्कार की भी सज़ा निर्दोष काटते हैं. जब तक जुर्म साबित ना हो जाए, अंडरट्रायल तो रहे. साबित हो गया तो अंडकोष निकालिए और जेल में डाल दीजिए. अंडकोश को फ़्रिज़र में एहतियात के तौर पर रखिए कि अगर वो दोषी ना हुआ तो वापस लगा दिया जाय. ऐसा कम ही होगा, लेकिन फिर भी ये प्रावधान किया जा सकता है.
लेकिन हम तो सभ्य समाज में रहते हैं. ये समाज इतना सभ्य है कि बलात्कार ठीक है, लेकिन कानून किसी का लिंग नहीं काट सकता, अंडकोष नहीं निकाल सकता. ये कानून फाँसी की सज़ा दे सकता है लेकिन एक गर्भवती महिला के बलात्कार, उसकी माँ के बलात्कार, उसके बच्चे को पत्थर पर मार देने को जघन्य नहीं मान सकता.
ये कानून मेरी समझ से बाहर है. बलात्कार कम होंगे या नहीं, ये सवाल है ही नहीं. बलात्कार होते रहेंगे क्योंकि आदमी हैं दुनिया में. तो ये ‘डेटेरेण्ट’ वाला एंगल तो हटा ही दीजिए. क़त्ल कौन से रुक गए हैं फाँसी की सज़ा के बाद से?
अण्डकोश निकालना ही सर्वोत्तम उपाय है, और उसके बाद जेल में आजीवन डालना. जी, एक बलात्कार के लिए इतना ज़रूरी है. बलात्कार झूठ बोलना, धाँधली करना, डाका डालना नहीं है. बलात्कार कई स्तर पर किया गया एक क़त्ल है जिसमें ना सिर्फ उसकी पवित्रता नष्ट होती है, बल्कि विक्टिम को ही सामाजिक अलगाव झेलना होता है, उसके लिए हर दिन इस बात के साथ ज़िंदा रहना एक मौत से ज़्यादा कष्टप्रद होता है कि उसका बलात्कार किया गया.
और जब पवित्रता कह रहा हूँ तो इसे पेट्रोनाइजिंग मत समझिए. इसे छद्मनारीवाद के फर्जीपने से मत जोड़िए. हर शरीर पर, उसके हर हिस्से पर एक ही इन्सान का हक़ होता है. ये उसी की इच्छा पर निर्भर है कि वो उसके साथ क्या करता है. कोई दूसरा उसे बिना मर्ज़ी के छू भी नहीं सकता. ऐसे में अपने मर्दाना ग़ुरूर का शक्ति प्रदर्शन उसकी पवित्रता की हत्या है. मर्दानगी अंडकोष और लिंग में ही सबसे ज़्यादा होती है. इनको सदा के लिए मूर्छित कर देना ही इसकी सही सज़ा लगती है.
इसलिए भी, इसकी सज़ा मौत की सज़ा से थोड़ी अधिक होनी चाहिए.