शिकार अब तो प्रतिबंधित है, लेकिन जब होता था तो उसमें “खेदा” भी होता था. जिम कॉर्बेट की किताबें जिसने पढ़ी हों, या तराई के इलाकों में आना जाना हो, वो अब भी खेदा से वाकिफ हो सकते हैं.
कई ऐसे पशु होते हैं जो छेड़े बिना हिंसक नहीं होते लेकिन फसलों के लिए बड़े नुकसान वाले होते हैं. जैसे कि जंगली सूअर, जो जड़ें खोद खोद कर खाता रहता है, उसके वो आगे के दांत जड़ खोदने के लिए ही बड़े बड़े से होते हैं. जिन्हें खेदा नहीं भी पता हो वो शायद अब बाहुबली (नया वाला) देखकर खेदा समझ गए होंगे.
ये साधारण सा तरीका है, क्योंकि गाँव में सबके पास शिकार लायक हथियार नहीं होते. गाँव के ज्यादातर लोग कनस्तर, ढोल, थालियाँ पीटते एक कतार में आगे बढ़ते हैं. शोर से घबराकर पशु दूसरी दिशा में भागता है.
शिकारी जंगली सूअर का घात लगाए वहीँ बैठे होते हैं. जैसा फिल्म में दिखाया, वैसे सूअर कोई एक तीर में नहीं मरता, तो सारे शिकारी अपने भाले-फरसे के साथ उसपर टूट पड़ते हैं. तीर खाया सूअर एक दो फरसे के वार में मारा जाता है.
बिहार में शराबबंदी हुई तो शराब माफिया के लिए भी जगह बनी. अब सिवान का बॉर्डर उत्तर प्रदेश से लगता था जिस से शराब अन्दर आ सकती थी.
काफी मोटी इस मलाई के लिए माफिया-वॉर होना भी तय था. लेकिन शहाबुद्दीन के सिवान में होते ये पूरी मलाई एक ही समुदाय विशेष और एक ही पार्टी विशेष को जा रही थी.
इधर कई दिन से जो लगातार शहाबुद्दीन पर घेरा कसा जा रहा है उसे आप सूअर मारने का खेदा कह सकते हैं. उसे तब तक खदेड़ा गया जब तक वो बिलकुल सही निशाने पर ना पहुँच जाए. तीर खाने, ठीक शिकारी के सामने !
बाकी ये भी याद रखिये कि शिकार-खेदा अक्सर राज्य प्रायोजित होता है और बत्तीस दांतों के बीच पड़ी जीभ उतनी भी नाजुक नहीं होती, सारे दांत तुड़वा सकती है.
घायल सूअर को छोड़ना सुरक्षित भी नहीं होता. सुशासन बाबू को अब सिद्ध करना चाहिए कि वो बस परिस्थितियों के नेता नहीं हैं, राज-धर्म निभाएं.