‘पत्तरकारों’ की ग़लतबयानी और टीआरपी की भूख का हम बिलकुल बुरा नहीं मानते

“अख़बार का एक काम तो है लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएं पैदा करना, और तीसरा काम है लोगों में दोष हो तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना.” (मोहनदास करमचंद गाँधी, हिन्द-स्वराज में).

मीडिया के कई विशेषज्ञ शायद इस परिभाषा से पूरी तरह सहमत नहीं होंगे, लेकिन ये गाँधी का लिखा है. गाँधी जनता से उसी की भाषा में बात करते थे, तो अपनी पूरी-पूरी बात उन्होंने समझा दी होगी इसपर सवाल नहीं किया जा सकता.

इस परिभाषा में मेरी रूचि इसलिए है क्योंकि अपनी इन तीनों जरूरी जिम्मेदारियों को पूरा करने में अखबार (ख़ास तौर पर बिहार के अखबार) खासे नाकामयाब रहे हैं. उसके पीछे अपनी वजहें भी हैं. जैसे अभी हाल में ही बिहार दिवस के कार्यक्रम संपन्न हुए थे उनपर भी यहाँ के अख़बारों ने काफी कुछ लिखा.

उस से बड़ी बात कि इन अखबारों ने काफी कुछ नहीं लिखा. हुआ कुछ यूँ था कि सुशासन बाबू से हाल में ही दो व्यापारियों ने एक मंच पर कुछ सवाल कर दिए थे. बिहार में व्यापार से जुड़े साधारण सवाल थे, जैसे क्या ऋण-करों में सुविधा मिलेंगी जैसे सवाल.

नतीजा ये हुआ कि समारोह ख़त्म होने से पहले ही सुशासन पुलिस ने उन्हें उठाया और आठ घंटे आतंकियों जैसी “कड़ी पूछताछ” कर डाली. बाद में एस.पी. मनु महाराज ने सफाई दी थी कि आठ घंटे नहीं, केवल दो घंटे “कड़ी पूछताछ” की गई.

जाहिर है ऐसे में बिहार दिवस के आयोजनों पर “जय हो, जय जय हो” से ज्यादा कुछ हमारे फ्रीडम ऑफ़ प्रेस वाले नहीं बोल पाए.

बिहार दिवस का ये आयोजन इसलिए होता है क्योंकि बिहार को नया राज्य बने बहुत साल नहीं हुए. करीब सौ साल पहले ही बंगाल प्रान्त से काटकर ब्रितानिया सल्तनत के दौर में इसे अलग राज्य बनाया गया था.

अलग प्रान्त के पहले गवर्नर बने सर जेम्स डेविड सिफ्टन और अगले साल 1937 में हुए पहले चुनावों में कांग्रेस की जीत पर डॉ. श्री कृष्णा सिन्हा मुख्यमंत्री और डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री बने.

आजादी के शुरूआती साल अच्छे थे, इस दौरान बिहार को सबसे सुशासित राज्य माना जाता था. कोशी, अघौर, सकरी सहित कई नदी परियोजनाएं इसी दौर में शुरू हुई थी. बिहार का पतन कई साल बाद शुरू हुआ, करीब-करीब कांग्रेसी राज ख़त्म होने के दौर में.

आज जिस बिहार के बारे में जाना या सुना जाता है वो 1990 के बाद का बिहार है. सत्ताईस सालों से ज्यादा पुरानी याददाश्त आम तौर पर इसलिए भी नहीं होती क्योंकि इतने में एक पीढ़ी जवान हो जाती है.

इस दौर में 1992 का दंगा भी बिहार ने झेला, 2000 में बिहार का विभाजन कर के अलग राज्य झारखण्ड भी बना. 2002-04 के दौर में बिहार में भयावह अपराध और लूट मार का दौर था, अपहरण उद्योग इसी काल में पनपा.

नस्ली भेदभाव से बिहारियों का परिचय इस नब्बे से दो हज़ार तक के दौर में हो चुका था. फब्तियां-ताने कोई नहीं मारता, आम तौर पर गालियाँ ही पड़ती थी. छिट-पुट हिंसा तो खैर रोज़ की बात थी, 2003 में बिहारियों को पहली बार व्यापक हिंसा का सामना करना पड़ा.

बिहारी मजदूरों पर सन 2003 में मुंबई में बाल ठाकरे पोषित गुंडों द्वारा हमले शुरू हो गए. असम में व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई और सैकड़ों लोगों को मार दिया गया. नतीजा ये हुआ की हजारों की संख्या में भाग-भाग कर बिहारी मजदूर घर वापिस आने लगे.

पंद्रह साल से सत्ता सुख झेल रहे लालू परिवार को इसका खामियाजा अगले ही चुनावों में झेलना पड़ गया. विस्थापित होने के कारण जो मजदूर अपना मतदान नहीं कर पाता था, इस बार बेरोजगारी में वो घर पर ही (मार खाकर) बैठा था.

जोकरों वाले बयान और मंच से जातीय आह्वान का कोई फायदा नहीं हुआ. दम्पति की सत्ता छीन गई. 2008 में बिहारियों को दूसरी बार क्षेत्रवाद का दंश झेलने के लिए मजबूर होना पड़ा लेकिन अब तक बिहार के हालात सुधर चुके थे.

जैसे ही 2008 की पहली तिमाही में बिहार ऊपर की तरफ चढ़ने लगा, कई मजदूर लौटे ही नहीं. घरों के पास, अपने राज्य में काम मिल जाने के कारण 2008 का दौर पंजाब और महाराष्ट्र के लिए मजदूरों की किल्लत का रहा.

हालाँकि ये बात आसानी से कबूली नहीं जाती, लेकिन अर्थशास्त्री और राजनेता दोनों इस बात को जानते हैं कि 2015 तक बिहार की अर्थव्यवस्था खड़े होने योग्य शक्ति जुटाने और अपना सामर्थ्य आंकने में जुटी थी. करीब 2019-20 तक धीरे-धीरे ये खड़ी हो जायेगी.

ये सब वो बातें है जो शराबबंदी का ढोल पीटने के बदले सुशासन सरकार को बतानी चाहिए थी. ये वो बातें थी जो अखबार के जरिये हम तक पहुंचनी चाहिए थी. अफ़सोस कि ऐसा हुआ नहीं.

हाल में कई सूरमा पूछ रहे थे कि ऐसा कैसे होता है कि पत्तरकारों की हत्या हो जाती है, माफ़ कीजिये पत्तरकार नहीं, ब्यूरो प्रमुख की हत्या हो जाती है, और जनता पर असर नहीं?

ऐसा इसलिए होता है कि अख़बारों के मामले में रीडरशिप भले ही बिहारियों का सबसे ज्यादा हो, लेकिन वो बस एक उपभोक्ता का एक वस्तु खरीदना है. लोकतंत्र के चौथे खम्भे से इसे जनता का जुड़ाव मत समझिये.

बाकी खरीदार और बेचनेवाले के इस सम्बन्ध में भावनाओं की अपेक्षा ना करें. ओह हाँ! विक्रेता दो-चार झूठ भी बोलता ही है, थोड़ा चिल्ला कर आवाज भी लगाता है ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए, तो हम पत्तरकारों के ग़लतबयानी और उनकी टी.आर.पी. की भूख का भी बिलकुल बुरा नहीं मानते. जारी रखिये.

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