धंसे तीर की गहराई बताता सवाल : इस फिल्म में कोई मुस्लिम पात्र क्यों नहीं?

बाहुबली हमारे प्राचीन सांस्कृतिक वैभव को परिलक्षित करती है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है… पर इस फिल्म का इतने अप्रत्याशित रूप से सफल होना इस तथ्य को फिर से स्थापित करता है कि ये भारतवर्ष सतही विविधताओं के बावजूद अपनी सांस्कृतिक आत्मा में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है.

ये फिल्म उन आर्य बनाम द्रविड़ बनाने वाले वामपंथियों और क्षेत्रवादियों के मुँह पर भी तमाचा है जो भारत को कई संस्कृतियों का झुण्ड कहकर अपमानित करते आये हैं… वर्ना असंभव है कि तेलुगु भाषा में क्षेत्रीय कलाकारों को लिए हुए बनी फिल्म दिल्ली वाले को भी अच्छी लगे… पूरे दक्षिण से लेकर राजस्थानी, एमपी, गुजराती, असमी और बंगाली को भी अच्छी लगे…

सिर्फ अच्छी ही ना लगे बल्कि दीवानगी की हदें पार कर जाये… और ये दीवानगी तब आती है जब आपकी अंतरात्मा में दबी कुचली सुषुप्त सी किसी भावना को झकझोरा जाए…

आपकी वह सांस्कृतिक चेतना, जिसे अंडरवर्ल्ड के पैसे पर चलते माध्यमों ने कई कृत्रिम सूफ़ियानी सतहों… अपने-अपने कुत्सित अजेंडे और विचारधाराओं के नीचे कुचल दिया था…

उसे जब खुरचा गया तो भावनाओं के असंख्य ज्वालामुखी बह उठे… पैसों का हिमालयी अम्बार लग गया… रिकॉर्ड ऐसे बने कि आने वाली कई पीढ़ियां ना तोड़ पाएं…

तीर कितना गहरा लगा है इस बात का अंदाज़ा आप लगाइये कि दो-चार दिन से कई नामी पत्रकार ये पूछने लगे हैं कि इस फिल्म में कोई मुस्लिम पात्र क्यों नहीं था? एक फिल्म के लिए इतनी चिंता?

जनमानस का ये ज्वालामुखी देख बाजार के बड़े-बड़े पंडित हैरान हैं… और अब कोई बड़ी बात नहीं कि इस भावना का शोषण, और पैसा बनाने के लिए हो… विज्ञापन के जरिये… ऐसी ही और फिल्मों के जरिये… साहित्य के जरिये…

ऐसे में इस समाज को ये संतुलन भी स्थापित करना होगा कि हम “पीड़ित” से अचानक “शोषित” ना हो जाएँ… आने वाले दिनों में हमें अपनी सीमायें निर्धारित करना होंगी… रेखाएं खींचनी होंगी…

वर्ना महान सांस्कृतिक विरासत लिए हम कहीं कुछ पैसे से पैसे बनाने वालों का… या भावनाओं की गंगा में अपने मतलब साधने वालों का… “बकरा” बन कर ना रह जाएँ!

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