मोदी जी पाकिस्तान से युद्ध कर नहीं रहे हैं इसका सब को गुस्सा आ रहा है. जरा युद्ध को थोडा सा समझ लेते हैं.
पाकिस्तान के साथ दो बड़े युद्ध हुए जिन्हें हम युद्ध कह समाते हैं. एक लड़ाई भी हुई, कारगिल की. कारगिल को युद्ध नहीं कहा जा सकता क्योंकि तमाम सबूतों के बावजूद पाकिस्तान ने उसे अपनी सेना की हरकत नहीं माना इसलिए भारत को भी अपना जवाब सीमित रखना पडा. तीनों को जरा डिटेल में समझ लेते हैं.
पहले दोनों युद्ध सीमा पर लडे गए. देश के अन्दर ब्लैक आउट हुए, बाकी जो वास्तविक युद्ध झेला सीमावर्ती इलाकों ने ही. किसी भी बड़े शहर पे कोई बम नहीं गिरे. बम गिरने से क्या होता है, शहर की हालत क्या होती है, इस पोस्ट से संलग्न चित्रों से समझ लीजिये.
शायद शत्रु के हवाई जहाज नहीं पहुँचाने दिए जायेंगे. युद्ध आज भी सीमाओं पर होगा, लेकिन आप ने मिसाइल शब्द जरुर सुना होगा? हमारा लगभग हर बड़ा शहर पाकिस्तान के मिसाइलों के निशाने पर है. और मिसाइल को गिराने से रोकने की प्रणाली हमारे पास नहीं है. वैसे अमेरिका आदि देश कहते है कि उनकी पेट्रियट सिस्टम इस मामले में कारगर है लेकिन अगर एक साथ कई मिसाइल छोड़े गए तो उसकी भी सीमा है.
हाँ, उनका भी हर शहर हमारे मिसाइलों के भी निशाने पर है. जितनी बरबादी वे करेंगे उससे कई गुना हम करेंगे, लेकिन बरबादी हमारी भी होगी. इसीलिए कोई देश आज खुला युद्ध नहीं चाहता.
पाकिस्तान हम से छद्म युद्ध लड़ रहा है. सीमा पर बहुत कम लड़ाई हो रही है, ये शस्त्र संधि का उल्लंघन होते रहता है. गोलियां दागी जाती हैं तो जानें भी जाती है, और दोनों तरफ जाती हैं. जवाब अपनी तरफ से कोई कम नहीं मिलता, बस हम उसका ढोल बिलकुल नहीं पीटते हैं. कुल मिलकर ये व्यवहार रोजमर्रा का है. असली युद्ध कुछ अलग है.
असली युद्ध है पाकिस्तान की घिनौनी हरकतों का भारतीय मीडिया द्वारा अतिरंजित कवरेज. वीरगति पाए सैनिको को नमन के नाम पर मीडिया का जान बूझकर भावना भड़काना, उस बलिदान को सरकार की असमर्थता गिनाकर जनमानस में क्षोभ की भावना बढ़ाना. पाम्पोर में मारे गए वीरबहादुर की जाति को लेकर किया हुआ झूठा हंगामा भूले तो नहीं होंगे आप लोग? यह हर बलिदानी वीर के अंतिम संस्कारों का यह पीपली लाइव टाइप का कवरेज रुकना चाहिए.
दोष जनता का भी है. हम voyeur (दूसरों की यौन क्रिया या यौनांगों को देखने का आदी) बन चुके हैं, हमें वो सब इमोशनल क्षण देखने हैं, यह मीडियावालों के पास बहना है. इसके आड़ में सरकार विरोधी भावना परोसी जा रही है और हम इसे छद्म युद्ध का एक भाग समझ भी नहीं रहे हैं यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.
आतंकी वारदातें भी इस छद्म युद्ध का ही भाग है. आतंकी हवा में से प्रकट नहीं होते स्टार ट्रेक सेरियल की तरह, जो यहाँ बटन दबाया तो जहाँ चाहिए वहां मटेरिअलाइज़ हुए. ना ही वे हथियारों के साथ टहलते आते हैं. सब व्यवस्था होती है और स्थानीय स्लीपर सेल टीम के साथ प्लानिंग होती है. जरुरी है स्थानीय टीम को ढूंढकर उसका सफाया करने की. आये हुए आतंकी मरने के लिए ही आते हैं, स्थानीय स्लीपरों को मरने की कोई इच्छा नहीं होती.
लेकिन पुलिस स्थानीय स्लीपरों को ढूँढने के लिए हरकत में आती है तब उन्हें कौन रोकता है यह हमें समझना चाहिए. मासूम भटके आतंकवादियों के मासूम भटके लोकल अफजल गुरु कौन हैं? उनका फायनांसर कौन सा याकूब मेमन होता है? पुलिस अगर उन्हें सामने लाती है तो उन्हें पुलिस से बचानेवाला कौन सा लोकल मिर्ची सेठ होता है?
ऐसों से लड़ लिया तो पाकिस्तान से युद्ध की आवश्यकता बहुत कम रहेगी. युद्ध में लोग मारे जाते हैं, बस कौन मारे जाएँ यह हम जरा बदल दें तो सही होगा.
अच्छा, मिसाइल गिरे तो हो सकता है आप का घर तबाह होगा, या आप का कोई और नुक्सान होगा. और तो और, force majeure के नाम पर इन्शुरन्स वाले भी युद्ध से हुआ नुकसान भर देने से मना कर सकते हैं.
घर रहा भी तो पानी की लाइन उड़ सकती है. धोने को पानी नहीं मिलेगा, क्या सह लेंगे? इलेक्ट्रिसिटी जायेगी, क्या चलेगा ? टावर उड़ा तो फेसबुक पर स्टेटस कहाँ से डालेंगे?