स्कूल और कॉलेज जमाने के बहुत से मित्र हैं मित्रसूची में… यहाँ फेसबुक एक्टिविटी से कुछ पता नहीं चलता है कि वे है या नहीं है… लगता कि सुषुप्तावस्था में जीवित है बस…
जब लिखना प्रारंभ नहीं किया था तब बड़े एक्टिव से लगते थे… कुछ फ़ोटो अपलोड किया, कुछ शेयर किया, कुछ मुबारकबाद लिखा, कुछ शायरी लिख डाली तो सब बड़े एक्टिव हो जाते थे.. लाइक-कमेंट प्यारानुसार चलते रहता था… फिर जैसे ही कॉलेज खत्म हुआ ‘संघीपना’ का सुरूर मेरे ऊपर चढ़ने लगा।
पहले तो केवल पढ़ता था और डिबेट करता था… अपने वाल पे नहीं न्यूज चैनलों और पेजेस पे… फिर जैसे ही हिंदी टाइपिंग वाला मोबाइल आया… अपने वाल पे कुछ-कुछ लिखना शुरू कर दिया..
अब तो दोस्त लोग हो गए भौचक्के… ये क्या-क्या लिखने लगा है आजकल… क्या हो गया इसको?… जो उँगलियाँ पहले लाइक करने के लिए उठती थीं उसपे लगता है कि किसी ने नजर लगा दी…
दोस्तों ने फेसबुक पे एक दूरी बनानी शुरू कर दी… दिनों दिन मेरे पोस्टों में और भी संघीपना पैना होता गया… तो लोग पूरी तरह से कट ही गए… न फ़ोटो, न हंसी-मज़ाक वाली पोस्ट और न ही मुबारकबाद वाले पोस्टों में आने लगे…
बोले तो एक तरह से बायकॉट ही हो गया… लेकिन जैसे-जैसे ये दूर होते गए उससे दस गुना तेज गति से लोग जुड़ते भी गए… जाहिर सी बात है कि विचारों से ओत-प्रोत लोग ही ज्यादा जुड़े…
तो इनके सामने आने से तो सब ने हाथ खड़े कर दिए… बोले तो टोटल एब्सेंस… मियां दोस्त तो कब कल्ले से कट लिए पता भी न चला।
बीच में एक बार गौर किया कि साले ये कॉलेज वाले लौंडे मर तो नहीं गए… जो पहले बराबर पोस्ट में आते थे उन सब का प्रोफाइल चेक किया… सब जिन्दा और एक्टिव ही मिले…
एक दिन फुरसत में बैठ के सबको बारी-बारी से फोन लगाना शुरू किया.. ‘क्यों बे, दीखते तो जिन्दा ही हो फिर मरे जैसा व्यवहार क्यों करते हो?’
जवाब मिला ‘भाई बहुत ज़बर जा रहे हो… हम रेगुलर पोस्ट पढ़ते हैं तुम्हारी… बिल्कुल मन की बात लिखते हो… जैसा हम सोचते वैसा ही डिट्टो लिख देते हो… लेकिन भाई समझा करो… मेरे से बहुत जन जुड़े हुए हैं… मेरे रिश्तेदार, सगे-सम्बन्धी, बचपन के मित्र… सभी हैं… ऐसे में जब हम तुम्हारी पोस्ट पे लाइक या कमेंट करते है तो न्यूज फीड उन लोगों के टाइमलाइन में भी जाता है… और तब मेरे लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है… समझा करो भाई… तुम बहुत बढ़िया लिखते हो… ऐसे ही लिखते रहो.. हम लोगों को बहुत अच्छा लगता है… लाइक-कमेंट न करूँ तो इसका ये मतलब नहीं कि मैं तुम्हारे विचारों से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता हूँ… भाई कीप इट अप… वी आर ऑलवेज़ विद यू।”
हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दू ऐसे ही है… सब चाहते है कि क्रांति हो लेकिन भगत सिंह पड़ोसी के घर से निकले… काहे कि खुद के इमेज की बड़ी चिंता रहती हैं… लोग, रिश्ते-नातेदार क्या सोचेंगे मेरे बारे में…
‘क्या सोचेंगे मेरे बारे में?’… बस यही ले डूबता है हिंदुओं को… मैं पिछले डेढ़ साल में कट्टर बन गया… संघी बन गया… संकीर्ण बन गया… और पता नही क्या-क्या बन गया…
बोले तो इमेज खराब कर ली अपनी… लेकिन वे बड़े कायदे से अपने इमेज को मेंटेन किये हुए हैं… हाँ मोरल सपोर्ट है… लेकिन तब जब आप उनसे बुलवाओगे।
ऐसे ही भारत सेकुलर कंट्री नहीं है।
‘लोग क्या सोचेंगे?’