अस्तित्व की लड़ाई… आखिर ये अस्तित्व की लड़ाई है क्या?… किसे हम अस्तित्व से जोड़ के देखे?… आखिर ये अस्तित्व का पैमाना क्या है? वर्तमान में कौन-कौन अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं?
ज्यादा दूर नहीं पड़ोस में ही चलते है… इराक-सीरिया में ‘यजीदी’ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. पाकिस्तान में ‘कलश’ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.
तो आखिर इनके अस्तित्व का आधार क्या है?… और किस अस्तित्व को मिटने नहीं देना चाहते ये लोग? किस नए अस्तित्व से अपने को नहीं जोड़ना चाहते ये लोग?
तो इनके अस्तित्व का आधार है इनकी संस्कृति और इनका धर्म… और इनके अस्तित्व को चुनौती दे रहा है इस्लाम!… या तो ईमान लाओ या फिर कटने को तैयार रहो…
जब अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच बॉर्डर नहीं थे तब कलश लोग साथ थे… अफगानिस्तान अलग होते ही उस साइड के सभी कलश इस्लाम में दीक्षित हो गए जबरदस्ती…
इधर साइड वाले कलश ही रह गए… लेकिन इधर भी इन सब का इस्लामीकरण होते रहा… और आज ये ‘अस्तित्व’ की लड़ाई लड़ रहे है… तो फिर अस्तित्व का आधार क्या हुआ?…
अफगानिस्तान में भी कलश हैं और पाकिस्तान में भी… लेकिन अस्तित्व की लड़ाई पाकिस्तान वाले कलश लड़ रहे हैं…
तो फिर अफगानिस्तान के कलश लोगों का अस्तित्व का हुआ?… क्यों वे अब अपने अस्तित्व की बात नहीं करते?… क्योंकि वो अब एक नए अस्तित्व का हिस्सा हो गए है अपने पुराने अस्तित्व को मिटाकर… और बचे-खुचों का अस्तित्व अपने में समाहित करने में लगे हुए है.
अब अस्तितव का दूसरा तकाज़ा ये है कि धर्म-संस्कृति चाहे दूसरी की ही क्यों न अपनाना पड़े लेकिन ‘रेस’ (जाति) नहीं खोनी चाहिए… जाति बचाओ… चाहे अपनी पुरखों की संस्कृति को तिलांजलि ही क्यों न देनी पड़े. .. और ऐसी स्थिति तभी आती है जब आप निर्बल, असहाय या जीत लिए जाते हो… और तब आपके ऊपर कोई बाह्य संस्कृति थोप दी जाती है.
पाकिस्तान में आज हिन्दू अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है… बांग्लादेश में लड़ रहा है… कल को बंगाल, केरल, हैदराबाद में लड़ेंगे… म्यांमार में मुस्लिम (?) लड़ रहे हैं… सीरिया में ईसाई लड़ रहे हैं… पाकिस्तान-इराक में शिया लड़ रहे हैं…
रहे होंगे तो कभी एक ही जाति के… तो फिर ये ‘अस्तित्व’ किस बात का?… आपकी जाति तो बची हुई है न… तो फिर इसमें अस्तित्व का क्या रोना?
जब भी मैं ईसाई मिशनरीज़ के बारे में लिखता हूँ तो झारखण्ड के कुछ मित्रों को बहुत बुरा लगता है… वे इसे ‘अस्तित्व की लड़ाई’ से जोड़ देते हैं…
इनका कहना है कि आज तक हमारा ‘अस्तित्व’ मिट गया होता अगर ईसाई मिशनरियां न होती तो!…
मने मिशनरियों के कारण ही इनका अस्तित्व टिका हुआ है… तो जो मिशनरियों के इतर हैं उनका अस्तित्व किनके भरोसे टिका हुआ है?…
जो मिशनरियों के नहीं हुए और अब भी अपनी संस्कृति और नस्ल को बचाये हुए हैं वो ज्यादा अपने पर गर्व करते हैं या मिशनरियों का अनुकरण करने वाले ज्यादा गर्व करते हैं?
खुद में झाँकियेगा और विचार कीजियेगा.
आपके ही बंधु जब कुछेक संख्या में बचेंगे जो ‘सरना’ मतवालंबी होंगे और ‘सरना’ अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहेंगे तब आप क्या बोलेंगे?…
तब शायद आपका यही ज़वाब रहेगा कि ‘क्या सरना-सरना का रट लगाये हुए हो… धर्म-वर्म में कुछ रखा हुआ नहीं है.. अपनी नस्ल/जाति बचाओ… आओ क्रिश्चियन बन जाओ… बाबा यहोवा सब ठीक कर देंगे.’
अब ये ‘अस्तित्व’ का पैमाना क्या है… वो अब आप तय करो.