सीमाओं से सैनिकों के शव आ रहे हैं इस पर देश की भावनाएं भड़की हुई हैं. ऊपर से उनके शवों के साथ जो दुर्व्यवहार किया जा रहा है उससे लोग और भी भड़के हुए हैं. ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यहीं कुछ बातें ठन्डे दिमाग से सोचना चाहिए ऐसी मेरी करबद्ध प्रार्थना है.
पहली बात तो यह है कि पाकिस्तान की पैदाइश ही हमें तकलीफ दे कर हुई है, तकलीफ देते रहने के इरादे से हुई है. आज जो परिस्थिति है उसमें पाकिस्तान का सफाया नामुमकिन है तथा उनको जीतना अव्यावहारिक.
उनसे युद्ध भी अव्यावहारिक है इसलिए जिस तरह की हरकतें वे करते हैं, उनका वैसा ही जवाब वहीँ पर देने की जरुरत है और वो समय-समय पर दिया भी जाता रहा है. पहले भी दिया जाता था, आज भी दिया जा रहा है.
फर्क केवल इतना है कि पहले न उनके हमलों को हाईलाइट किया जाता था और न ही हमारे जवाब को. आज मीडिया, बलिदानी वीरों को नमन करने के बहाने से सरकार के खिलाफ जनभावना भड़का रही है. वे कुछ नहीं कहते, खबर दे देते हैं लेकिन इस तरह से कि जनता में सरकार के खिलाफ रोष भड़क उठे कि यह सरकार कुछ नहीं करती है.
वहीँ मीडिया और सोशल मीडिया में भी सरकार विरोधी रोष को जोरदार तूल दिया जाता है. चार लोगों से लिखवाते बुलवाते रहिये “सरकार क्या कर रही है?” और कुछ पता चले तो उसे बहुत कम गिनाते रहिये, “भला यह भी कोई कारवाई हुई?”
बहुत आसान हो गया है जनता को उकसाना, और पता ही नहीं चलता कि उकसाने वाले कब किनारे हो लिए और जनता ही रोष की लहर बनकर आगे चली गई.
तो पाकिस्तान से या चाइना से सीधा युद्ध अव्यावहारिक है. आज युद्ध कोई सीमा पर ही खेला जानेवाला खेल नहीं रहा इतना ही कहूंगा. लेकिन फिर भी, हम एक अलग युद्ध से ग्रस्त हैं, त्रस्त हैं और सरकार से कोई सहायता नहीं मिल रही है बल्कि हमारे आक्रान्ता ही मजे लेते दिखाई दे रहे हैं.
ये भीतरघातियों का छेड़ा छद्मयुद्ध है जो अब आतंक के स्तर पर आ चुका है. यहाँ न केवल दंतेवाड़ा और कुपवारा में होती सुरक्षा कर्मियों की हत्याएं हैं, इसमें आम लोगों के जिन्दगी के अरमानों की हत्याएं भी शामिल हैं.
और यहाँ रोष इसलिए है क्योंकि अपराधी, या तो कानून और प्रशासन का अपराध को सुरक्षित रखने के लिए इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं या फिर प्रशासन से ही प्रश्रय पाते दिखाई देते हैं.
जिन्दगी के अरमानों की हत्या क्या होती है यह जरा स्पष्ट कर दूं… तो बात यह है कि अगर आप विद्यार्थी हैं और खुलकर राष्ट्रवादी हैं तो शिक्षा पर आपका किया हुआ खर्च बरबाद हो जाएगा और आप एक सुशिक्षित बेरोजगार भर बन के रह जाएंगे. नहीं तो सिस्टम का हिस्सा बन जाइए, औरों का शोषण करने की आप की भी बारी आयेगी.
यह कुछ वैसा ही होता है कि आज की कोठे वाली मालकिन भी कोठे पर कभी जबरन बिकी हुई वेश्या ही होती है. जो अत्याचार वो उसके कोठे पर लायी लड़कियों पर कर रही है वही अत्याचार से वो भी कभी गुज़री है लेकिन वो यादें उसका दिल नर्म नहीं करती, वह केवल फिल्मों की आभासी दुनिया में दिखता है कभी कभार.
हाँ, लड़की की जिद पूरी तरह टूटकर वो धंधे पर सजकर बैठने लगे तब उसे यही कोठे वाली पूरा संरक्षण भी देती है. आगे चलकर जिन्दा रही तो यही लड़की भी कोठे वाली बन जायेगी, नयी लड़कियों के शरीरों पर जीने की परंपरा अखंड रहेगी.
पोस्ट के मूल विषय से यह जरा सा आवश्यक विषयांतर हुआ. अब मूल विषय पर आते हैं. बस कल्पना कीजिये कि decent लड़कियों का जीना हराम कर देती हैं ये कोठे वालियां कोतवाली को खरीद कर. या फिर कोतवाल निष्प्रभ है और शहर हतप्रभ, और कोठे वालियां और उनके शोहदे और दल्ले प्रतिष्ठित हो रहे हैं.
इस वक्त नागरिकों में जो गुस्सा आता है, वही शासक पर फूटता है. जहाँ सब से खतरनाक और चालाक शत्रु को आप उसके सुर में सुर मिलाकर ‘ऑल इज़ वेल’ कहकर सम्मानित कर रहे हैं, जहाँ आप की जडें खोदने वाले लोगों को आप उखाड़ नहीं पा रहे बल्कि आप का समर्पण भाव से साथ देने वालों को भी आप उनसे बचा नहीं पा रहे हैं तब कहीं तो रोष फूटेगा ही.
हम आप के शत्रु तो नहीं हैं, समर्थक ही थे, समर्थक आज भी हैं लेकिन बस इतना समझ लीजिये कि हमारी निष्ठाएं भारत देश को ही समर्पित हैं. हम केवल देशभक्त हैं, और केवल देशभक्त ही रहेंगे.