अरब का इतिहास : भाग-2

करीब 12 लाख वर्गमील में फैले अरब भूमि का लगभग सारा हिस्सा शुष्क पठार और रेगिस्तानी इलाकों से भरा हुआ है. 5 लाख वर्गमील भूमि लगभग मानव-शून्य है.

[अरब का इतिहास : भाग-1]

मिट्टी की संरचना के आधार पर अरब भूमि को तीन भागों में तक्सीम किया गया है. उत्तरी अरब सफ़ेद रेत से आच्छादित है, जो नुफूद कहलाता है फिर नूफूद से लेकर सूदूर दक्षिण तक का भाग अल-दहना, अल-धना या अल-रब्बुल-खाली नाम से मशहूर है.

[अरब का वो इतिहास जिसे हम सबको जानना चाहिये]

ये पूरा क्षेत्र लाल रेत से पटा है जो लगभग ढ़ाई लाख वर्गमील में विस्तारित है. तीसरा हिस्सा भूरे और शुष्क पठारों का इलाका है जिसे अल-हरा कहा जाता है.

पूरे अरब में वर्ष भर गर्म हवायें चलतीं रहतीं हैं, ये हवायें लू की शक्ल में होतीं हैं. अरब के कई इलाकों में तो ऐसी लू चलती हैं जिसका एक थपेड़ा भी किसी की जान ले सकता है. अरब इन मौत देने वाली हवाओं को बादे-समूम या जुहैरिया हवा कहतें हैं.

हिजाज के इलाके में तीन-तीन, चार-चार साल तक पानी नहीं बरसता. तहामा के इलाके में जब लू के थपेड़े चलतें हैं तब ऊंट अपने चारों पैरों को जोड़ कर उसके अंदर अपने मालिक को छुपा लेता है.

हिजाज के जुनूबी हिस्से में तहामा का इलाका है. उस इलाके में लगभग हर समय रेतीली आंधी चलती रहती है, इसलिये आतंकी इन इलाकों में अपने ट्रेनिंग कैम्प चलाते हैं ताकि दूसरे देश की निगाहों से बचे रह सके.

अरब में इंसान दो रूपों में आबाद रहे. एक वर्ग बद्दू या देहाती था जो मुख्यतया खेती और पशुपालन से अपनी जीविका चलाता था और दूसरा वर्ग व्यापारी और संभ्रांत था जिसके व्यापारिक रिश्ते दुनिया भर में थे. जिनके अंदर राजनैतिक चेतना थी.

ऐसा नहीं है कि अरब के अंदर का यह इंसानी विभाजन इस्लाम के आने के बाद खत्म हो गया. बद्दू अरब आज भी वहां पाये जाते हैं. बद्दू अस्थिर जीवन जीने के आदी थे, आज यहाँ तो कल वहां. उत्तरी अरब में बद्दू अधिक थे और दक्षिण अरब में शहरी.

अरब के दोनों श्रेणियों के लोगों में कई बात कॉमन थी और वो ये कि ये लोग अपने वंश, रक्त और कबीले को लेकर बड़े अभिमानी थे. उनके नाम इसकी पुष्टि करते हैं, किसी अरब से उसका नाम पूछिए तो अपने पीछे के कई पूर्वजों का नाम वो झटके में बता देता था. जैसे अली बिन अबू तालिब बिन अब्दुल मुतल्लिब बिन हाशिम बिन अब्दे-मुनाफ. उ

नके अंदर अपने अतीत गौरव को पहचानने का बोध इतना था कि वो मानते थे कि उनके सिवा दुनिया में और कोई नहीं है जिसके पास अपने पूर्वजों को लेकर ऐसी शानदार जानकारी और गौरव-बोध हो.

अरब के इन दोनों श्रेणियों के लोगों में एक बात और कॉमन थी. वो थी, न हम किसी को अपने अधीन करेंगे और न किसी के अधीन रखेंगे. इसलिये इस्लाम पूर्व अरब में जो जंग होतीं थी उसका आधार सिर्फ और सिर्फ वंश-गौरव को ऊँचा रखना था. यानि वो लुटेरे नहीं थी, जंग को जीविकोपार्जन और साम्राज्य-विस्तार का साधन नहीं मानते थे.

“हदीसें कहतीं हैं कि इस्लाम पूर्व अरब में 1700 से अधिक युद्ध लड़े गये पर इनमें एक भी पानी के लिये नहीं था, ये हैरतनाक इसलिये है क्योंकि पानी रेगिस्तान के लिये अमूल्य संपदा मानी जाती है”.

तीसरी बात कॉमन थी कि ये सब ऊंट के ऊपर सबसे ज्यादा निर्भर थे. चाहे वो बद्दू हो या शहरी अरब, हरेक खुद को अहल-अल-जमल यानि ऊँटों वाले कहलाना पसंद करता था. आर्थिक सम्पन्नता का आधार ऊंट ही थे.

ऊँटों के अलग-अलग नस्लों के गुणों, कमियों और विशेषताओं पर हर अरब महारत रखता था. ऊँट इनके लिये सबसे मुफीद जानवर इसलिये भी था क्योंकि अरब को सबसे अधिक लाभ इनसे ही पहुँचता था.

ये ऊंटनी का दूध पीते थे, उससे सवारी का काम लेते थे, उसका मांस खाते थे, उसके खाल से कपड़े और तम्बू बनाते थे, उसकी मेगनी को ईंधन रूप में इस्तेमाल करते थे, उसके मूत्र का प्रयोग दवा के रूप में करते थे और कई बार पानी का अभाव होने पर उसे मारकर उसके अंदर का पानी इस्तेमाल करते थे.

दूसरे पशुओं में इनकी निर्भरता घोड़े पर थी, घोड़ों से इनकी मुहब्बत इतनी थी कि पानी की अनुपलब्धता की स्थिति में ये खुद प्यासे रखकर भी अपने घोड़ों को पानी पिला देते थे.

अरबों के संबंध में दो बात हैरान करने वाली है कि प्राचीन काल में अरबी सम्पूर्ण प्रायद्वीप की भाषा नहीं थी, बल्कि अरबी केवल वहां के बद्दू बोलते थे जो अरब के उत्तरी भाग में आबाद थे, दक्षिण अरब की भाषा हिमारती थी जो अब लुप्तप्राय है.

दूसरी हैरान करने वाली बात ये है कि उन अरबों में से कोई भी खुद को आदम का वंशज नहीं मानता था. ये अवधारणा वहां बाद में इस्लाम ने डाली.

इस्लामी तारीख लिखने वाले अरब के इतिहास को हजरत इब्राहीम और उनके बड़े बेटे इस्माइल से आरम्भ करते हैं, जबकि अरब की तारीख कहीं दूर से आरंभ होती है. अरब में कुछ मूल निवासी आबाद थे तो कई बार बाहर से आकर भी वहां लोग आबाद होते रहे.

वैसे तारीख में अरबों की तीन किस्में मानी जाती है. एक अरब कहलाते हैं, अलअरब-उल-बायदा, दूसरे हैं अलअरब-उल-आरेबा और तीसरे हैं अल-अरब-उल-मुस्तारबा.

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