वो दिख जाती है अक्सर
उस गुलमोहर की छाँव में
हँसती खिलखिलाती गुनगुनाती…
कितनी भोली मुस्कान लिए
आँखों में भविष्य के स्वप्न संजोए
जैसे कोई जीत नहीं सकता उससे…
प्रेम से भरी है वो
अपने स्वयं के आकाश को
कभी सूर्य की अग्नि में तपाती
कभी चन्द्रमा से शीतल करती
कभी टाँक देती दो तारे
और इठला जाती…
कभी हौले से कहती अपना मन
और स्वयं से लजाती..
मैं सोच में पड़ जाती उसे देख
मेरी कोई भी तो नहीं है वो
फिर भी मेरी कितनी अपनी…
मैं भर भर आशीष देती उसे
कि वो ऐसी ही रहे ताउम्र
और फिर शंकित होती
ठिठक जाती…
अभी उसे तपना है
जीवन की भट्टी में
वो अनजान है नहीं जानती
इतना सरल नहीं स्त्री होना…
जीवन नहीं है उसके लिए
गुलमोहर की छाँव…
पर फिर भी चाहती हूँ
कि सदा ऐसी ही रहे
वो अल्हड़ नादान लड़की
– प्रेक्षा सक्सेना