गुरु द्रोण हम शर्मिंदा हैं

पूरे महाभारत में मुझे जिस एक पात्र से वितृष्णा थी, वह थे द्रोणाचार्य. यह द्रोणाचार्य वह पहले आदमी थे जिन्होंने ट्यूशन प्रथा शुरू की. बचपन से ही कुछ व्यक्तिगत घटनाओं के कारण मुझे ट्यूशन प्रणाली से घृणा थी.

उससे बहुत पहले प्राचीन भारत में युगों से गुरुकुल प्रथा विद्यमान थी. इस गुरुकुल प्रथा में घर से निकल कर बच्चों को भेजा जाता था. वहां सब साथ रहकर वहीं पढ़ते थे.

सभी जातियों के, सभी वर्गों के, सभी वर्णों से बच्चे गुरु के पास आश्रम में जाकर रहकर पढ़ते थे. गुरुकुल शिक्षा प्रणाली इस दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली थी. उस प्रणाली से योग्य त्यागी, सन्यासी गुरु अपने आवास पर, आश्रम में छात्रों को बहुआयामी शिक्षा देता था.

जंगल में चारों तरफ दूर तक फैला हुआ आश्रम, वहां वह भी छात्रों के साथ रहता था. देश भर से छात्र उसके पास पढ़ने आते थे और मधुकरी कर के तमाम सद्गुणों को विकसित करते थे.

वह केवल एकांगी जीविकावादी शिक्षा व्यवस्था नहीं थी बल्कि यहाँ व्यक्तित्व के 10 आयामी गुणों को विकसित किया जाता था. शिक्षा की परिभाषा थी व्यक्तित्व का पूर्ण विकास.

तमाम प्राचीन ग्रन्थों, स्मृतियों, पुराणों, श्रुतियों, प्रस्तरखण्डो में उल्लेख है ‘उस समय देशभर में हजारों गुरुकुल थे. उन गुरुकुलों में राजा से लेकर के सबसे गरीब आदमी का बच्चा भी जाकर पढ़ता था.’

अब जब सब समान भाव से एक ही जगह रुक कर, साथ रह कर प्रयत्न-पूर्वक पढ़ रहे हैं तो स्वाभाविक है कि समाज-राष्ट्र के प्रति श्रद्धा, समर्पण, समानता का भाव बना ही रहेगा. वह मधुकरी (भिक्षा मांगना) करने जाता था. इससे अहं खत्म होता है. समर्पण बढ़ता है.

घरों में मांएं भिक्षा देती थी क्योंकि उनका बेटा भी किसी न किसी जगह ऐसे ही रह रहा होता था. वह करुणा से भरी इन्तजार करती थी. समाज से लेने की आदत और समाज से विकसित होने की आदत राष्ट्र समाज के प्रति एक गहरा समर्पण पैदा कर देती थी.

राजा बनने के बाद भी वह उन चीजों को संस्कार रूप में, स्वभाव रूप में याद रखता था. प्रजा बनने के बाद भी उससे राजा की दूरी नहीं रहती थी. सबके अपने-अपने काम थे, शिक्षा के मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास होने के कारण सबकी आध्यात्मिक उन्नति सहज ही होती रही होगी.

सैनिक शिक्षा, व्यवहारिक जीवन, खेती, व्यापार, योग से लेकर के शास्त्र शिक्षा तक वहां दी जाती थी. इन गुरुकुलों से राजा निकले, सैनिक निकले, व्यवसायी निकले, सेवक निकले, राज्य कर्मचारी निकले, ब्राह्मण निकले, मजदूर निकले और बहुत सारे किसान निकले.

देश के कोने-कोने में गुरुकुलों की महत्ता बहुत ज्यादा थी. इसने पूरे देश को 100 प्रतिशत साक्षर और शिक्षित बना दिया था. लेकिन द्रोणाचार्य पहले आदमी थे जो राजा के यहां पढ़ाने चले गए. उससे पहले कोई नहीं गया था किसी के व्यक्तिगत घर में पढ़ाने.

वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी शिक्षा बेचनी शुरू की. उसके बाद तो सबने यही शुरू कर दिया. फिर शिक्षा व्यवस्था समाज आधारित न रह कर के राज्य आधारित होती चली गई. फिर राज्य ही तय करने लगा की शिक्षा कैसे चलेगी. उसका कोर्स क्या होगा.

उससे पहले शिक्षा समाज-आधारित व्यवस्था थी. समाज आधारित व्यवस्था पर स्वत: का नियंत्रण था, त्याग का नियंत्रण था और अध्यात्म का नियंत्रण था. द्रोण के बाद यह पंडिताऊ होता गया, यह पौरोहित्य में मिल गया.

गुरुकुल खत्म होते गए. शायद इसीलिए इस युग को कलयुग का प्रारंभ मानते हैं. मैं जैसे-जैसे भारत के इस पतित व्यक्ति के बारे में जितना पता करता और सोचता कि उन्होंने केवल राजकुमारों के लिए अपनी शिक्षा बेचनी शुरू की तो मेरे मन में द्रोणाचार्य के लिए नफरत बढ़ती जाती थी.

मैंने उस काल को खूब अध्ययन किया, खूब पढ़ा और मैं द्रोण को बहुत सारी चीजों का कारण दर्शाता था. एकलव्य भी इसी में से जन्मा. स्वाभाविक है घनघोर जातीयता भी यहीं शुरू हुई, नहीं तो राम के साथ तो वानर लड़ने गये थे.

बहुत साल पहले की बात है. तब मेरी बेटी शुभि छोटी थी. एक दिन मैं सुबह सो कर उठा और देखा, मेरी बेटी खिलौने के लिए जिद कर रही थी. रात में बच्चो के किसी सीरियल में उसकी नजर रिमोट से चलने वाली कार पर पड़ी थी. अब उसे वह कार चाहिए थी.

उसकी माँ ने रात को यह कहकर सुला दिया था सुबह खरीद देंगे. सुबह जब दूकान पर गये तो वह कार 8 सौ रूपये की थी. तब मेरे लिए 8 सौ रूपये बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. उस दिन कुछ ऐसा था कि जेब में पैसे नहीं थे.

वह सुबह से शाम तक जिद करती रही और शाम को मैं द्रवित हो गया, तड़प उठा. मुझे किसी भी तरह अपने बच्चे को खुश करना था क्योंकि मैं पापा था. अपने पास पैसा न होने पर पहली बार मुझे कोफ़्त हुई. उस दिन मैं कुछ भी कर सकता था. सिद्धान्त और नियम से परे भी. खैर! बाद में पैसे हो गए. उसके पास कई कारें थी.

उसी दिन अचानक मेरा मन द्रोणाचार्य के ऊपर गया. उस दिन मैंने द्रोण को माफ कर दिया. जानते है वह घटना क्या थी जिससे आहत द्रोणाचार्य अपनी शिक्षा बेचने चले गए. जिससे द्रोणाचार्य ने ट्यूशन शुरू कर दी? युगों की गुरुकुल प्रथा खत्म हो गयी?

द्रोणाचार्य धनाभाव से पीड़ित थे. धीरे-धीरे उन्हें धन के अभाव में आश्रम बन्द करना पड़ा. उन्होंने बहुत कोशिश की थी कि आश्रम बन्द न हो. पर हाय रे आत्मकेंद्रित होता समाज. फिर जीने के लिए कुछ गो-धन मांगने द्रुपद के पास गये. कुछ नही मिला बल्कि अपमान मिला.

घोर गरीबी में दिन काट रहे थे. एक दिन ऐसा आ गया कि उनका बेटा अश्वत्थामा दूध के लिए व्याकुल था. उसे भूख लगी थी. भूख कौन खत्म कर सकता है भला. खुद का बर्दाश्त कर लेंगे किंतु अपने बच्चे का! उसे दूध चाहिए था.

दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर, सबसे बड़ा योद्धा, सबसे अच्छा शिक्षक यह देखकर तडप उठा. दूध के लिए रोते अश्वत्थामा को उसकी मां कृपि ने आटा घोल कर दिया. बच्चा तुरंत ही समझ गया कि यह आटा है, दूध नहीं है. उसने फेंक दिया. फिर चिंघाड़ मार-मार रोना शुरू कर दिया.

विश्व के सबसे समर्थ योद्धा, अच्छे शिक्षक के पास इतना धन भी नहीं था कि अपने बच्चे को दूध दे सके. गुरुकुल तो पहले ही बंद हो चुका था. गुरुकुल चलाने के लिए कुछ भी नहीं था. क्योंकि राज मद ने, राज व्यवस्था ने गुरुकुल को धन दान देना बंद कर दिया था. राज व्यवस्था खुद के सुख भोग में लग गई थी.

द्रोणाचार्य ने वह किया जो एक मजबूर बाप करता है. वह शिक्षक नहीं रह गए, अब वह एक बाप बन गए. अपने बच्चे के पिता बन गए. उसकी कीमत भी उन्होंने चुकाई जान देकर लेकिन गुरुकुल प्रथा खत्म हो गई.

मैं अब उनके पक्ष में खड़ा हूँ. अब मैं द्रोणाचार्य जैसा सोच रहा था. वह द्रोणाचार्य जिन्होंने अपने बच्चे के लिए ट्यूशन देना शुरू किया. विश्व के पहले ट्यूटर. आज हजारों लोग देते हैं.

संस्थागत शिक्षा की असफलता के कारण हजारों ट्यूटर निकलते हैं. वे समाज को उस तरफ ले जाते हैं जिसे महाभारत कहते हैं. क्योंकि पैसे देकर पढ़ने से एक नई प्रवृत्ति पैदा होती है. गुरु के प्रति वास्तविक आदर भाव समाप्त कर देती हैं.

ट्यूशन लेने वाला बच्चा जानता है कि सामने वाला पेड है. वह उसके प्रति वह आदर नहीं पैदा कर पाता जो एक गुरु के प्रति होना चाहिए. शिक्षा का बेस ही यहां हिल जाता है.

वह व्यक्तित्व का बहुआयामी नहीं हो सकता. शिक्षा ने समाज को ऐसा बना दिया. अंतत: सत्ता खत्म हो गई, त्यागवाद खत्म हो गया. शिष्य त्याग का आदर्श लेता था गुरु से, वहां रह रहे सन्यासियों से और समाज से.

जब वह प्रेरणा ही न बची तो जोड़ के कारक तत्व नष्ट होंगे ही. अपनी करनी आप भुगतता हमारा समाज. द्रोणाचार्य शिक्षा देने गए थे, ट्यूशन से देने गए थे और एकलव्य मिला.

सबसे बुरा अंत युद्ध से हुआ. उस युद्ध में उन्होंने सब को मरते देखा. बेटे को हारते देखा. हर सुख की एक कीमत होती है उसकी बड़ी कीमत होती है. उन्होंने भी चुकाई.

लेकिन जरा आप और गहराई से सोचिए, एक मजबूर बाप अपने बच्चे को दूध क्यों नहीं दे सकता. क्योंकि हमने हमारे तत्कालीन समाज ने उस गुरुकुल सिस्टम के त्याग-वाद को इग्नोर किया. वह हमारा आधार था. हमारे समाज का बेस.

जब बेस ही नष्ट होगा तो हम बचेंगे क्या? हमने उस व्यवस्था को खुद ही समाप्त किया तो हम खुद भी नष्ट हो जाते हैं. उसके बाद कुछ भी अच्छा नही हुआ.

द्रोण हम शर्मिंदा है.

Comments

comments

LEAVE A REPLY