मटके भर भर दूध पिलाओ, सर्प सदा विष दाता है |
गिरगिट पालो राजमहल में, तब भी रंग बदलता है ||
दुष्टों से संयम की बातें, मूरख हैं जो करते हैं |
भस्मासुर बन वो नर अपने, कर्मों से ही मरते हैं ||
हलवाई के मिष्ठानों का, श्वान नहीं रखवाला है |
अरे ततैया के छत्ते से, किसने शहद निकाला है ||
चौदह सदी पुराना विष जो, मानवता का पातक है |
कई सभ्यता लील चुका जो, आर्य वंश का घातक है ||
उस विष के प्रभाव को आहा! मिष्ठान्नों से रोकोगे |
धर्मराज ऐसी बातों से, निज कुल धर्म डुबो दोगे ||
धर्मराज शकुनि संग यदि, फिर से द्यूत रचाओगे |
राज, बन्धु, तनया, भार्या, निज सर्वस्व लुटाओगे ||
जिस महानाश से धरती को, केशव भी ना सके बचा |
उसे टालना चाह रहे तुम, अहा! छद्म इक द्यूत रचा ||
रण निश्चित है लड़ना होगा, केशव भाग्य विधाता है |
पाप जलेगा महासमर में, सत्य जगत का त्राता है ||
रण निश्चित है, अविनाशी है, तुम जब तक सत्य नकारोगे |
हे धर्मराज अनजाने में, लाखों अभिमन्यु मारोगे ||