जी हाँ, अब लगता है कि Science Fiction की कहानियों में वर्णित वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब माँ बाप मिलकर दोनों किसी बच्चे के भ्रूण को टेस्टट्यूब के तरीके से बनवा कर किसी महिला के गर्भ में न रख कर एक मशीन में रख दिया करेंगे, और माँ बाप नौ महीने बाद उस मशीन से जाकर अपनी सन्तान को लेकर घर आ जाएंगे.
आज की तारीख में इस प्रकार की कल्पना करना एक असम्भव सा काम दिख रहा है. पर जिस तेजी से विज्ञान प्रगति कर रहा है अब यह साफ नजर आने लगा है कि जल्दी ही भविष्य में यह सब सचमुच सम्भव हो जाएगा. तब बच्चे माँ के पेट में नहीं अपितु प्रयोगशालाओं में बने कृत्रिम गर्भाशयों में पैदा हुआ करेंगे.
इस दिशा में वैज्ञानिकों को पहले चरण में पूरी सफलता मिल गई है. इस प्रयोग के लिए वैज्ञानिकों ने भेड़ के गर्भाशय में पनप रहे भ्रूण से बने अजन्मे अविकसित शिशु भेड़ को उसकी माँ के गर्भाशय से बाहर निकाल कर कृत्रिम गर्भाशय में रखा.
जिसमें ठीक उसी तरह गर्भाशय का द्रव, आक्सीजन, खून, खुराक अविकसित शिशु भेड़ को नलियों और कम्प्युटर नियन्त्रित युक्ति से दिया गया. देखते ही देखते उन्होने पाया कि भेड़ के बच्चे में 10-12 सप्ताह के भीतर ही पूरी तरह विकास हो गया, शिशु भेड़ हाथ पैर चलाने लगा, आंखे टिमटिमाने लगा.
इस प्रयोग के दूसरे चरण में वैज्ञानिक संबन्धित सरकार और मेडीकल नैतिक ऐजन्सियों से लायसेन्स तथा कानूनी अनुमति लेने की तैय्यारी कर रहे हैं. इस तरह प्रयोगशाला में बनाये गये कृत्रिम गर्भाशय में उन पाच महिने, छ: महिनों के भ्रूण नर शिशुओं को रखा जाय जो किसी कारण से मॉ के अपने गर्भ में नहीं रह पाते हैं , तथा गर्भपात व्दारा समय से पहिले ही मॉ के पेट से बाहर आ जाते हैं.
जिस तरह से वैज्ञानिकों ने भेड़ के अविकसित बच्चे को पूर्ण विकसित कृत्रिम गर्भाशय में सफलतापूर्वक करके दिखा दिया है, अब यह उम्मीदे बढ़ गई हैं कि प्रीमेच्युअर जन्मे शिशु को इन्क्युवेटर में, कृत्रिम सांस प्रणाली पर रखने के बजाय इन्हें सुरक्षित तरीके से कृत्रिम गर्भाशय में रख कर पूर्ण विकास होने के बाद बाहर की दुनिया के दर्शन कराये जावें. ऐसी स्थिति में मानसिक रूप से अविकसित, और अपंग तथा समय से बहुत पहले पैदा हो रहे कमजोर ‘ब्लू-बेबी” होने के खतरों से बचा जा सकेगा. इस प्रकार का प्रयास चिकित्सा के क्षेत्र में महान क्रान्ति लायेगा.
अपने इस भविष्य के चरण की सफलता के बाद निश्चित ही वैज्ञानिक एक न एक दिन सफलता की उस स्थिति में पहुंच सकेंगे जब माँ बाप मिलकर अपने होने वाले शिशु के आकार प्रकार रंग रूप की डिजाईन पसन्द करके “जेनेटिकली मॉडिफाइड शिशु” को जन्म कराने का आर्डर देंगे और ठीक नौ महिने बाद अपने पसन्दीदा डिजाइन का बच्चा प्रयोगशाला से ले आएँगे.
यह सब देखकर और विज्ञान के हौसलों को देखकर आज यह अंदाज लगाना बहुत कठिन हो रहा है कि हम कैसी कल्पना करें कि अगले 100 साल बाद दुनिया और लोगों की घर गृहस्थी कैसी होंगी, आज इसकी कल्पना करना असम्भव-सा लग रहा है.
Scientists in the United States have developed a fluid-filled womb-like bag known as an extra-uterine support device that could transform care for extremely premature babies, significantly improving chances of survival.
In pre-clinical studies with lambs, the researchers were able to mimic the womb environment and the functions of the placenta, giving premature offspring a crucial opportunity to develop their lungs and other organs.
Around 30,000 babies in the United States alone are born critically early — at between 23 and 26 weeks of gestation, the researchers told reporters in a telephone briefing.
At that age, a human baby weighs little more than 500 grams, its lungs are not able to cope with air and its chances of survival are low. Death rates are up to 70 per cent and those who do survive face life-long disability.
“These infants have an urgent need for a bridge between the mother’s womb and the outside world,” said Alan Flake, a specialist surgeon at the Children’s Hospital of Philadelphia who led the development of the new device.
His team’s aim, he said, was to develop an extra-uterine system where extremely premature babies can be suspended in fluid-filled chambers for a vital few weeks to bring them over the 28-week threshold, when their life chances are dramatically improved. It could take up to another 10 years, but by then he hopes to have a licensed device in which babies born very prematurely are given the chance to develop in fluid-filled chambers, rather than lying in incubators being artificially ventilated.