परशुराम एक नहीं कई हुये हैं. लेकिन वाशिष्ठों और विश्वामित्रों की तरह हमने सभी परशुरामों को भी एक कर दिया है.
परशुराम जिस भार्गव वंश के थे, इसकी पूरी एक वंश परम्परा है जिसके सभी महापुरुष भार्गव या परशुराम स्वाभाविक रूप से कहलाए, लेकिन आज से 5000 वर्ष पूर्व एक परशुराम वे थे, जिन्होंने भीष्म (पितामह) के साथ इसलिए युद्ध किया था ताकि भीष्म खुद उनके (भीष्म के) द्वारा अपहरण करके लाई गई अम्बा (अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका वाली अम्बा) के साथ विवाह करें, पर वे भीष्म को आजीवन विवाह न करने की प्रतिज्ञा से डिगा नहीं सके.
इन्हीं परशुराम से आगे चलकर कुन्तीपुत्र कर्ण ने अस्त्र विद्या सीखी थी. इनसे एक हजार साल पहले यानि आज से 6000 साल पहले के एक परशुराम वे थे जिन्होंने शिव धनुष तोड़ने वाले राम के साथ विवाद किया, उसके शौर्य को चुनौती दी और राम से अपना मद-दलन करवा कर लौटे.
हैहयों से लड़ने वाले परशुराम इससे भी करीब एक हजार साल पहले हुए यानि आज से 7000 साल पहले. आततायी हैहयों से हुए इस महासंग्राम में परशुराम ने हैहयों को एक के बाद एक इक्कीस बार पराजित किया.
पर तब से हमारी स्मृतियों के इतिहास में दर्ज यह हो गया कि परशुराम ने भारत भूमि को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया. क्या क्षत्रियों का इक्कीस बार विनाश कोई एक ही योद्धा कर सकता है? क्या यह संभव है? नहीं. हैहयों के साथ हुए इस महायुद्ध को ब्राह्मण – क्षत्रिय संघर्ष की इस अजीबोगरीब व्याख्या के कारण देश का बच्चा-बच्चा परशुराम के बारे में जितना जानता है, उसके अलावा भी परशुराम के बारे में कुछ और जरूरी बातें जान लेनी चाहिए.
परशुराम जिस कुल में जन्मे उसके आदिपुरुष का नाम भृगु था. ये वही भृगु हैं जिनके किसी वंशज के प्रयासों से वह भृगुसंहिता रची गई, जिसे पढ़कर लोग अपना भविष्य जानने को उत्सुक रहते हैं. इसी भृगु के कारण उनके सभी वंशज भार्गव कहलाए. परशुराम भार्गव के पिता का नाम जमदग्नि था, इसलिए हमारी इस गाथा के कथानक के नायक को परशुराम भार्गव के अलावा परशुराम जागदग्न्य भी कह दिया जाता है.
इनकी माता का नाम रेणुका था और हम भारतीयों को गाथा याद है कि किसी बात पर रुष्ट अपने पिता जन्मदग्नि के आदेश का पालन करते हुए परशुराम ने अपने परशु (फरसा) से मां का वध कर दिया. जब प्रसन्न पिता ने वर मांगने को कहा तो उन्होंने अपनी मां का ही पुनर्जीवन मांग कर मां को फिर से पा लिया. भार्गवों को अगर उच्च ब्राह्मण न मानने की परम्परा चल पड़ी है तो इसका कारण परशुराम द्वारा किया गया मातृ-वध ही नजर आता है.
परम्परा के भार्गव लोग नर्मदा के किनारे रहा करते थे और आनर्त (गुजरात) के हैहय राजवंश के कुलगुरु थे. परशुराम भी अपने पिता जगदग्नि के साथ नर्मदा नदी के तट पर बने अपने आश्रम में रहा करते थे. अब तो परशुराम नाम का रिश्ता ही फरसे और दूसरे कई तरह के शस्त्रों से तथा हैहयों के साथ लड़े गए युद्ध के साथ बन गया है. पर मूलत: भार्गव आयुधजीवी ब्राह्मण नहीं थे और जमदग्नि का नाम भी शस्त्र के बजाय ज्ञान और विद्या के साथ ही जोड़ा जाता है.
पर जमदग्नि के साथ हुए अपमान को उनके पुत्र परशुराम सहन नहीं कर पाए और शस्त्र विद्या पर परमज्ञान प्राप्त कर वे कई राजाओं का महासंघ बनाकर हैहयों से उलझ पड़े और एक महासमर को नेतृत्व दिया जिसमें हैहय जगह-जगह हारे. उसके बाद तो कुछ ऐसा हुआ कि भार्गव की बजाय परशुराम ही मानो कुल नाम पड़ गया और वह हर वंशज, जो युद्धविद्या में प्रवीण हो गया, खुद को परशुराम कहलाना ही पसंद करने लगा. इसलिए जो राम से उलझे वे भी परशुराम, और जो भीष्म से लड़े वे भी परशुराम.
पर भारत के इतिहास में आज करीब सात हजार साल पहले परशुराम ने यकीनन एक बड़ी निर्णायक लड़ाई हैहयों से लड़ी थी. पुराणो जिक्र है कि हैहैय बहुत ही आततायी, निरंकुश और अत्याचारी शासक हो गये थे. एक बार जब जमदग्नि के पुत्र परशुराम तप के लिए आश्रम से बाहर गए हुए थे तो कार्तवीर्य के पुत्रों ने जमदग्नि का वध कर दिया. तप से लौटे परशुराम ने इससे कुपित होकर हैहयों के नाश की प्रतिज्ञा कर डाली.
कीर्तवीर्य-जमदग्नि के बीच विरोध का ऐसा कोई बड़ा कारण इन कथाओं में से उभरता नजर नहीं आ रहा. जाहिर है कि कोई बड़ा कारण था जिसकी वजह से परशुराम ने हैहयों को सबक सिखाने की ठान ली. बस लग गए वे अपनी धुन के पीछे. अयोध्या, विदेह, काशी, कान्यकुब्ज और वैशाली के राजाओं का एक महासंघ बनाकर खुद वे उसके नेता बने.
उधर हैहयों ने भी आज के सिन्ध और राजस्थान के कुछ राजाओं को अपने साथ मिलाया. परशुराम ने हैहयों को इक्कीस जगह पराजय दी. जाहिर है कि युद्ध लंबा और भयानक चला होगा. यह अनुमान भी लगा सकते हैं कि महाभारत की तरह यह युद्ध भी कई दिन यानी इक्कीस दिन चला और इसमें हैहयों को भारी हार का सामना करना पड़ा हो. जहां युद्ध का कोई बड़ा कारण हमारे इतिहास के स्मृतिपटल से लगभग पुंछ चुका है, वैसे ही इक्कीस संख्या के असली अर्थ से भी हम करीब-करीब वंचित हो चुके हैं.
पर भारत के इस पहले महासमर को लेकर दो बातें जरूर ध्यान में आ जाती हैं. एक, परशुराम हमारे इतिहास के पहले ब्राह्मण पात्र हैं जिन्होंने किसी अत्याचारी राजा को दंड देने के लिए राजाओं को ही एक जुट कर लिया. इसके पहले पुरुरवा, वेन, नहुष, शशाद जैसे राजाओं की दुष्टताओं या लापरवाहियों को दंडित करने के लिए ऋषि अपने ही स्तर पर आगे आए थे.
पहली बार सारे मामले को एक ऐसी राजनीतिक शक्ल मिली कि संघर्ष का स्वरूप ही बदल गया. इसका असर क्या पड़ा, यह आकलन इसलिए कठिन है क्योंकि घटनाचक्र का पूरा रूप हमारे सामने नहीं है. दूसरी महत्वपूर्ण बात उस युग के स्वरूप के बारे में है. कैसा रहा होगा वह युग? एक ओर उत्तर में वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच संघर्ष चल रहा था तो पश्चिम में हैहयों और भार्गवों के बीच युद्ध की स्थिति बनी हुई थी.
अयोध्या में सत्यव्रत त्रिशुंक नाम से एक उद्धत राजा राज कर रहा था तो आनर्त में बराबर के उद्धत कार्तवीर्य की दुन्दुभि बज रही थी. और इन सबसे ऊपर विश्वामित्र और परशुराम नाम के दो विराट मस्तिष्क सारी जन राजनीति को आंदोलित किए हुए थे. कैसा रहा होगा वह युग जो सत्ययुग की छवि के हिसाब से बहुत ही शांत होना चाहिए, पर कितनी हलचल और कितनी गतिविधि से सराबोर था?
अन्यायियों का बार बार नाश करने वाले भगवान परशुराम के चरणो में प्रणाम.