देश ने राष्ट्रपिता को झेला तो तीन टुकड़े हो गया… सामूहिक चाचा को झेला तो तिब्बत गंवा बैठा… अब हम किसी “विकास के पापा” को झेलने के मूड में नहीं है!
कुछ लोग ऐसे विचारों को शीघ्रपतन का शिकार बता रहे हैं. भाई, इस तरह का विचार किसी शीघ्रपतन का शिकार नहीं है, यह भारत में सनातन धर्म के शीघ्रता से होते हुए पतन को रोकने के लिए उठने वाली कराह है.
मानता हूँ समय कम है, कार्य बहुत है और कठिनाइयाँ हिमालय से भी बड़ी हैं. पर जब राष्ट्र ‘करो या मरो’ के मुहाने पर खड़ा हो तो इस तरह के बहानों का कोई औचित्य नहीं रह जाता है.
जब कैंसर एक स्थिति से ऊपर पहुँच जाता है तो तो शल्य क्रिया ही एक मात्र विकल्प होता है… कुशल चिकित्सक पूर्व में हुई लापरवाही का रोना न रोकर जल्दी से जल्दी शल्य क्रिया करता है.
आज केरल का कैंसर लगभग-लगभग असाध्य हो चुका है. हम अब भी शल्य क्रिया का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं. देखते हो देखते लक्ष्य द्वीप कैंसर से गल ही गया पर हमारे चेतनाशून्य मस्तिष्क को आभास तक न हुआ.
बंगाल और पूर्वोत्तर की गाथा सब जानते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हाल धीरे-धीरे खराब होना ही है. योगी राज में कैंसर वाली कोशिकाएं दर्द भले न करें पर अनियंत्रित रूप से बढे तो जा ही रही हैं.
इन सब स्थानों पर धारा 370 नहीं है… न ही कोई हुर्रियत, उसके बावजूद भी हम क्या कर पा रहे हैं. स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो धारा 370 वो बुर्का है जिसमें हिन्दू समाज अपनी कायरता छिपाए फिर रहा है.
फिर दोहराता हूँ… जब तक इस कैंसर के उपचार का प्रबंध न हो तब तक सारा विकास बेमानी है. समय निकलता जा रहा है…
जिस दिन शरीर के 30-35% हिस्से पर कैंसर हो गया उस दिन कोई विकास नामक दवाई काम नहीं करेगी और हमें एक राष्ट्र के रूप में आत्मघात करने पर विवश होना पड़ेगा.
प्रश्न उठता है कि क्या किया जाय? बहुत से उपचार हैं… आयुर्वेद में भी, एलोपैथी में भी. इसके लिए एक समर्पित मंत्रालय बनाया जाना चाहिए. जिसका कार्य देश के प्रत्येक जनपद में कैंसर की अवस्था का परीक्षण और उसके अनुसार उपचार हो.
कार्य बड़ा है… इच्छा शक्ति दिखानी होगी… समर्पित लोगों की टीम बनानी होगी और अथक प्रयास करना होगा. यह कार्य यदि साल-दो साल में प्रारंभ नहीं हुआ तो शरीर के कुछ हिस्से कैंसर से गल भी सकते हैं.