“वो दिन कब आएगा जब भारत, पाकिस्तान पर हमला करके पाक अधिकृत कश्मीर को मुक्त करायेगा?… या फिर… वो दिन कभी आएगा ही नहीं.”
मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था.
गत वर्ष महाशिवरात्रि को मैं अपने एक मित्र (एक विस्थापित कश्मीरी पंडित) के आमंत्रण पर उनके घर जो कि जम्मू में है, गया हुआ था. कश्मीरी पंडितों का यह सबसे बड़ा पर्व है जिसे वे “हेरथ” भी कहते हैं.
मेरे मित्र का परिवार किराए के मकान में रहता था, हालाँकि उसे विस्थापितों के लिए बनी कालोनी में दो कमरे का फ्लैट भी मिला हुआ है… पर वो वहाँ रहता नहीं है… ताला बंद है.
मेरे पूछने पर कि वो वहाँ क्यों नहीं रहता?… जवाब नहीं दिया पर उसने कहा – “अभी पूजा खत्म होने के बाद आपको ले चलूँगा वहां”.
थोड़ी देर बाद उसने प्रसाद की एक पोटली बनाई और फिर हम उसके फ्लैट को देखने गए. दूसरी मंजिल पर उसका फ्लैट था… कमरे का ताला खोला… दरवाजा खुलते ही बदबूदार गंध, चारों तरफ दीवारों पर सीलन, छत एवं फर्श के प्लास्टर कहीं-कहीं से उखड़े हुए दिखे.
मित्र ने कहा … “बारिश की बूँदों को यह बिल्डिंग सोखकर अपने अंदर जमा कर लेती है और गर्मियों में एयरकंडीशनर कमरे में होने का एहसास होता है”.
उसने यह बात कही तो मजाक में थी… पर एक नौसिखिए कलाकार की तरह वो अपने चेहरे पर भाव नहीं ला पाया था… जिस भाव की मुझे उम्मीद थी.
वो तुरंत ही अपना चेहरा मेरी आँखों से ओझल करना चाहता था, पर वो सफल नहीं हो पाया था… मैं उसकी आँखों में आँसू देख चुका था. थोड़ी देर तक वो कुछ नहीं बोल पाया… फिर मैं भी उसके भावों को ना पढ़ने का नाटक करते हुए कमरे से बाहर निकल आया.
कुछ देर बाद.. वो बिल्कुल सामान्य था. अपने साथ लाई उस पोटली को दिखाते हुए कहा – “संजय जी, चलिए यहीं पास में ही मेरा एक दोस्त भी रहता है, उसे देकर आते हैं”.
हम पहुँचे उसके दोस्त के घर… उसका मकान भी कमोबेश वैसा ही था पर मेरे मित्र के मकान से थोड़ा अच्छा लगा… चूंकि वो उसमें रहते थे इसलिए मरम्मत आदि करवाते होंगे.
मेरे मित्र ने उससे मेरा परिचय कराया… पता लगा वह पाक अधिकृत कश्मीर से विस्थापित होकर यहां आया था… पर वो कश्मीरी पंडित नहीं था उसके कई रिश्तेदार भी अगल-बगल में रहते थे.
मेरे लिए उन लोगों से मिलना एक अजीब सी अनुभूति का एहसास दिला रहा था… अपनापन था… पर वो एहसास… खुशनुमा तो हरगिज नहीं था.
उस वक्त मैं अपने आप को भाग्यशाली मान रहा था कि मैं उन लोगों में से नहीं था… मैं शेष भारत का निवासी होने का गौरव महसूस कर रहा था. मेरे मन में एक बात आई कि इस परिस्थिति का चुनाव इन्होंने खुद तो कभी नहीं किया होगा. खैर…..
वो हमें कमरे में ले गए… उनके दो बेटे थे, छोटा छः साल का और बड़ा दस साल का. मेरे मन में उनके बारे में जानने की जिज्ञासा बलवती होती जा रही थी.
बात मैंने ही छेड़ दी.. “यहाँ आपके पिताजी आए थे या दादाजी”?… उसने कहा – “दादाजी”… अगर मैं कॉमनसेंस लगाया होता तो “पिताजी” नहीं कहा होता.. क्योंकि उसके पिताजी तब बच्चे रहे होंगे.
बात 1947 की है… जब जम्मू कश्मीर ना ही भारत.. और ना ही पाकिस्तान में था. कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अभी भारत के विलय प्रस्ताव पर साइन नहीं किये थे.
पाकिस्तान के लिए कश्मीर को हासिल करना उसका एकमात्र और अंतिम लक्ष्य था… जिसके लिए उसने हजारों की तादाद में कबायलियों को हथियारों से लैस करके कश्मीर में भेजना शुरू किया. पीछे से उनको सहयोग देने के लिए सेना को भी लगा दिया. उनके निशाने पर गैर मुस्लिम ही थे…
हजारों की संख्या में हिन्दूओं को मार डाला गया पर पचास हजार हिन्दू उस क्षेत्र से पलायन कर जम्मू की ओर सुरक्षित इलाकों तक पहुंचने में सफल रहे. आज की तारीख में इनकी संख्या बारह लाख से अधिक है.
अब जरा भारत सरकार की नीति को देखिए.
सरकार ने इन्हें यह कहकर स्थाई पुनर्वास नहीं कराया कि पाक अधिकृत कश्मीर हमारे देश के नक्शे में है… जिसे हम इसी राज्य का हिस्सा मानते हैं… हमारा दावा कमजोर पड़ जायेगा अगर हम उनको पूरा मुआवजा दे देंगे.
आज छः दशकों बाद भी इनके 56 अस्थायी कैंप हैं जो दूरदराज के गांवों में फैले हैं और आज भी स्थायी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं. थोड़ी बहुत जो जमीन या मकान दिया गया उसका भी मालिकाना हक उन्हें नहीं मिला.
और तो और… उनका जम्मू कश्मीर राज्य का स्थायी निवासी प्रमाण पत्र भी नहीं बनाया जाता है. कैसे बनेगा भाई?… हमारा दावा जो कमजोर हो जाएगा.
इनके बच्चों को छात्रवृति, शिक्षा, नौकरी में आरक्षण आदि नहीं दिया जाता… क्योंकि हमारा दावा जो कमजोर हो जाएगा…. यही है सच… यही है कहानी… उन्हीं की जुबानी.
उनकी बातें खत्म ही नहीं हो रही थी.. “हम घर-मकान.. जमीन-जायदाद… संपत्ति सब कुछ छोड़ कर कैम्पों में रहने को मजबूर हैं.”
आगे बोले – “कभी-कभी सोचता हूँ आखिर वो दिन कब आएगा जब भारत, पाकिस्तान पर हमला करके हमारी धरती को मुक्त कराएगा… या फिर वो दिन कभी आएगा ही नहीं”.
बातें खत्म हो गई थी. काफी देर तक सन्नाटा पसरा रहा… और यह सन्नाटा तब टूटा जब उनके दोनों मासूम से दिखने वाले बेटे हमारे पास आए..
बड़ा बेटा जो थोड़ा होशियार हो गया था, ने कहा – “अंकल जी.. हम बड़े होकर इंडियन आर्मी में जायेंगे और अपने दादाजी के गाँव से पाकिस्तानियों को बंदूक से मार भगायेंगे”.
मेरी आँखें नम थी साहब.. उस वक्त…