जातियों का सशक्तिकरण सबसे बड़ी भूल थी. जातियां सशक्त हो कर हिंदुत्व में विलीन हो गईं.
अपनी एक फेसबुक पोस्ट में यह लिखते हैं लखनऊ में निवास करते और अपनी प्रोफाइल में खुद को दलित चिंतक कहते मेरी मित्रता सूची शामिल एक सज्जन का.
मैं उनके कथन से सौ प्रतिशत सहमत हूँ और साधुवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने इस सकारात्मक बदलाव को ईमानदारी से महसूस ही नहीं किया बल्कि इसे अभिव्यक्त भी किया.
मेरी सहमति है… कि देश में जातीय राजनीति करने वालों ने बाबा साहेब की मूल अवधारणा “जातियों का विनाश” के ठीक उलट व्यवहार किया और अंततः सामाजिक समता का आंदोलन “जाति तोड़ो”…. की जगह “जाति बांधों” में बदल कर रह गया.
उन सज्जन की बात का एक हिस्सा कहता है “और इसकी वजह से जातियां सशक्त हुईं जिसके परिणाम में हिंदुत्व मजबूत हो गया”.
‘अवसरों में समानता’ के लिए संवैधानिक व्यवस्था…. जातिगत आरक्षण का निजी तौर पर मैं समर्थक होते हुए…. आपकी बात के इस हिस्से से भी प्रचंड सहमति रखता हूँ.
बल्कि आगे बढ़ कर मैं कहता रहा और अब भी कहता हूँ कि… हिंदुत्व में हिंदू के रूप में दलितों, अति ओबीसी वर्ग की वापसी की जो शुरुआत लोकसभा 2014 में हुई वो 2017 आते-आते उत्तर प्रदेश के परिणामों तक और तेज हुई, मजबूत हुई. मैं इस वापसी में लगातार सकारात्मक बढ़त भी देखने की आशा करता हूँ.
लेकिन उनकी बात में इस बदलाव के परिणाम स्वरूप हिंदुत्व का मजबूत होना या उसमें दलितों, ओबीसी, अति ओबीसी वर्ग के समाहित हो जाने के पीछे चिंता का भाव दिखाई देता है.
सबसे पहले तो यही बात साफ होने की जरूरत रखती है.. कि यह उनकी चिंता है या संतोष, कि दलित फिर हिन्दू हुए और हिंदुत्व मजबूत हुआ. क्योंकि उनकी बात में संतोष या चिंता.. यह उनकी तरफ से साफ नहीं है.
लेकिन ऐसा दिखता है कि खुद को एक दलित चिंतक… (हालांकि मैं निजी तौर पर बौद्धिक जातीय व्यवस्था के खिलाफ रहते हुए इस प्रकार की जातीय चिंतन की ब्रांडिंग के पक्ष में कभी नहीं रहा जिसमे दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक, सवर्ण चिंतक आदि शब्द अस्तित्व में आते हैं)… दलितों के हिन्दुत्व में समाहित होने, हिंदुत्व के मजबूत होने से…. चिंता भाव में है.
यदि दलित हिंदू हुआ, उससे हिंदुत्व मजबूत हुआ… तो यह आपके लिए चिंतन छोड़… चिंता की बात क्यों है? ऐसा क्यों हो सकता होगा भला?
इस पर एक सार्वजनिक बहस की जरूरत है. इस चिंता को और समझे जाने की जरूरत है.
यह कहते हुए कि अभी तो इस देश का बहुसंख्यक हिन्दू महज 30 प्रतिशत ही हिन्दू हुआ है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिये यह परिणाम है… जिस दिन यह प्रतिशत 50 के आस-पास भी पहुंचा… देश की राजनीति और राजनैतिक व्यवस्था कैसी दिखेगी ?
एक सार्वजनिक संवाद आयोजन का न्योता है : लखनऊ में ही रखा जा सकता है. वे सहमति दें, एक दिन… दो सत्रों की एक सार्वजनिक परिचर्चा का आयोजन करने हेतु मैं न्योता देता हूँ.
दलित के हिन्दू होने, उसके जरिये हिंदुत्व की मजबूती.. दलित चिंतक समाज की चिंता का विषय क्यों ?
इस विषय पर चिंतन की जरूरत है : न्योता कबूलिये.