हिसार हरियाणा में जन्मा “अरविंद” एक आईआईटियन था पढ़ाई के बाद दिल्ली सरकार द्वारा उसे इनकमटेक्स विभाग के उच्चपद पर नियुक्त किया गया. भारत के आधे से ज़्यादा विद्यार्थियों का सपना होता है आई आई टी संस्थानों में पढ़ना, कईयों पर तो इसका जुनून इस कदर सवार हो जाता है कि उन्हें अपने इस जुनून के लिए अपने प्राण तक गंवाने पड़ते हैं मगर अरविंद का भाग्य तेज था उसकी मेहनत और लगन सच्ची थी इसलिए वह आई आई टी में दाखिला पा गया और वहाँ से ग्रेजुएट हो कर निकला. इसके बाद उसे दिल्ली सरकार के आयकर विभाग में उच्चपद पर नियुक्त कर दिया गया.
मैं या आप होते तो संतुष्ट हो जाते. इससे ज़्यादा और चाहिए भी क्या समाज में इज्ज़त, सरकारी आयोग में उच्चपद, अच्छा वेतन, एक खुशहाल परिवार. एक आम इंसान के लिए इससे बेहतर जीवन भला क्या हो सकता है.
मगर अरविंद आम में भी खास था, उसने देखा कि यहाँ तो भ्रष्टाचार दीमक की तरह देश की जड़ों को खोखला करता चला जा रहा है. उसने ठान ली कि वह इस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ेगा मगर दिक्कत ये थी कि उस अकेली की सुनता कौन.
फिर उसने सोचा अपने जैसे आम में खास आदमियों की खोज की जाए. और उन्हें सफलता भी मिली बहुत से सनकी मिल गए जिन्हें देश को बदलना था जिन्हें देश की जड़ों में बैठे भ्रष्टाचारी दीमक को मिटाना था. उसके बाद क्या था अभियान पर अभियान चलने लगे, बहुत से अभियान चलाए लोक सेवा के लिए इनाम भी पाए.
इन सब के बाद भी अरविंद में असंतुष्टी का कीड़ा मरा नहीं बल्कि बढ़ता ही चला गया. नियति ने भी ठान लिया था कि अरविंद के अंदर से असंतुष्टि का कीड़ा निकाल कर ही दम लिया जाएगा.
वर्ष 2011 में एक बूढ़े बाबा ने जनलोकपाल बिल को ले कर आंदोलन छेड़ दिया. जंतर मंतर पर आमरण अनशन शुरू हो गया. अन्ना बाबा ने ज़िद्द पकड़ ली कि कालाधन लाओ नहीं तो यहीं दम तोड़ दूंगा.
अरविंद को अपना कीड़ा निकालने तरीका मिल गया था उसने ठान ली कि वह अन्ना बाबा का साथ हर हाल में देगा और देश में कालाधन वापिस ला कर ही मानेगा. यह वह दौर था जब पूरे देश को लगने लगा था कि देश को फिर से कोई गांधी और नेहरू मिल गए हैं, अब तो देश का बदलना तय है.
इसी सोच और उम्मीद के साथ पूरा देश अन्ना बन गया. गली मोहल्लों से बार रेस्टोरेंटों तक, गाँव के हर चौपाल से देसी माडर्न हर हजाम की दुकान तक सिर्फ अन्ना हजारे और अरविंद छाए हुए मिले.
मगर अंत वही हुआ जो हर आंदोलन का होता आया है मतलब “ढाक के तीन पात” कालेधन की चवन्नी ना आई देश में. मिला तो बस हमेशा की तरह झूठा आश्वासन. अन्ना तो ये मान कर ठंडे हो गए कि इस देश का भला नहीं हो सकता मगर अरविंद को इन सबसे ये फायदा हुआ उसे पता चल गया उसका असंतुष्टि का कीड़ा कैसे निकलेगा.
अब अरविंद को पूरा देश जानता था, उसकी एक आवाज़ पर युवाशक्ति सारे काम धंधे छोड़ कर बिना लाठियों की परवाह किए धरना देने बैठ जाती. पूरे देश खासकर दिल्ली में अरविंद को अपार जनसमर्थन मिलने लगा था. वैसे तो इस जनसमर्थन को एक शुभसंकेत माना जा सकता था मगर अफ़सोस यह जनसमर्थन हत्यारा बन बैठा. इसने उस इंसान की हत्या कर दी जिसने देश से भ्रष्टाचार मिटाने की ठानी थी.
जी हाँ इस जनसमर्थन ने अरविंद को अपाहिज कर दिया ऐसा अपाहिज कि जैसे एक लाश हो और फिर जन्म हुआ केजरीवाल का. वो केजरीवाल जिसे बस काम करना कम और आलोचना करना ज़्यादा आता था.
जब तक अरविंद ज़िंदा था उसने बस वो किया जो उसे करना था, जिससे वो भ्रष्टाचार से मुक्त भारत के लक्ष्य को प्राप्त कर सके, वो भी बिना हो हल्ला किए बिना किसी पर इल्ज़ाम लगाए. मगर अब केजरीवाल आ गया था जिसका काम करने से ज़्यादा हो हल्ला करने में मन करता है.
हमने क्या किया ये देखने समझने से ज़्यादा वो जो किया मोदी जी ने किया पर अधिक ज़ोर देता है. जब आम आदमी पार्टी दिल्ली में चुनाव जीती तब लोगों ने केजरीवाल को अरविंद समझ कर वोट दिया था. कुछ को तो अरविंद के जगह पर केजरीवाल के आने की भनक तब ही लग गई थी जब केजरीवाल ने अन्ना को दरकिनार कर के राजनीति में कदम रखा.
अरविंद हमेशा अपने साथियों को साथ ले कर चला मगर केजरीवाल ने अपने सबसे करीबी और वफ़ादार साथियों को ही ठिकाने लगाना शुरू कर दिया. जिनके कभी गुण गाया करता था उन्हीं की बुराई करनी शुरू कर दी.
केजरीवाल के सर पर सत्ता का नशा इस तरह से चढ़ा कि उसने अरविंद के सारे असूलों को नज़रअंदाज़ कर दिया. वह समझने लगा कि मैं कुछ भी बोलूंगा कुछ भी करूंगा फिर भी जनता मेरे साथ रहेगी क्योंकि मैं आम आदमी हूं. लेकिन वो ये भूल गया कि आम आदमी अरविंद था और केजरीवाल का आम से खास होना जनता कब से देखती आ रही थी.
मीडिया के सामने ऊल जुलूल बयानबाज़ी, सरकार की हर नीति पर उसका विरोध, हर बात पर “मोदी ने किया है” चिल्लाना, अपनी पहुंच से ऊपर के वायदे करना और अपने दायित्व को भूल कर आलोचनाओं में वक्त गंवाना ही केजरीवाल के पतन का कारण बन गया.
दिल्ली में किसी पार्टी ने किसी पार्टी को नहीं हराया बल्कि केजरीवाल ने अरविंद को हराया है जिसका फायदा भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ ऐतिहासिक जीत के रूप में मिला. शराब, अफीम, कोकेन, स्मैक या किसी भी मादक पदार्थ का नशा आप एक हद तक संभाल सकते हैं मगर सत्ता का नशा एक ऐसा नशा है जिसे संभालना सबके बस की बात नहीं. केजरीवाल भी सत्ता का नशा संभाल नहीं पाए और औंधे मुंह गिर पड़े.
– धीरज झा