फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म बनाई थी… फिल्म का नाम था… “बुद्धा इन द ट्रैफिक जाम” इस फिल्म में अनुपम खेर उस प्रोफेसर की भूमिका में हैं… जो नक्सलियों को समझाता है कि
“तुम जंगल सँभालो हम दिल्ली सम्भालते हैं…”
आधी हिन्दी और आधी अंग्रेजी में बनी ये पूरी फिल्म का ये एक डायलॉग नक्सलवाद को समझने के लिए काफी है कि आखिर मकड़ी के जाल से भी अधिक घने जँगलों में इन्हें पैसा, बम, बन्दूक कौन दे रहा है..
इनका ब्रेन वॉश किसके द्वारा किया जा रहा… कैसे भोले-भाले ग्रामीणों को जबरदस्ती उकसा कर नक्सली बनाया जा रहा… नहीं तो उन्हें जान से मारा जा रहा… उनकी माँ-बहनों का रेप किया जा रहा…
ये पूरी फिल्म नक्सलियों के फैले मकड़जाल को बड़ी बारीकी से पड़ताल करती है… आप उस प्रोफेसर को देखने के बाद आसानी से समझ जाएंगे कि साईबाबा जैसा 90% विकलांग प्रोफेसर जब इतना खतरनाक हो सकता है… तो बाकी जिनके हाथ-पैर ठीक हैं उनका हाल क्या होगा?
यही कारण रहा कि इस फिल्म को दिखाने जब जादवपुर यूनिवर्सिटी में विवेक अग्निहोत्री पहुंचे तो “प्रतिरोध की संस्कृति” पर सेमिनार करने वाले लाल सियारों ने डंडे से मारकर उनके कार का शीशा तोड़ दिया.
मेरा निवेदन है भारत सरकार के कड़े निंदा वाले गृह मंत्री जी और सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी वाले पीएम साब से कि इस देश से नक्सलवाद और अलगाववाद तब तक खत्म नहीं होगा, जब तक कि इनके जड़ पर प्रहार नहीं होता..
आप बौराये पेड़ की टहनी को काट देने से थोड़े समय के लिए ही मुक्ति पा सकते हैं… उस समस्या का जड़ से समाधान नहीं कर सकते… आपको जड़ों पर वार करना ही पड़ेगा…
इन विश्वविद्यालयों और अकादमियों में कामरेड नेहरु की कृपा से जो बैठे हैं… दरअसल ये भी नक्सली ही हैं… एक समझौते के अंतर्गत अंतर बस इतना ही है कि इनके हाथ मे बन्दूक की जगह कलम… और बम की जगह किताबे हैं… वो जंगलों में जवानों को मार रहे हैं औऱ ये विश्वविद्यालयों में…