रचनात्मकता के नाम पर हमारे मन-मस्तिष्क में क्या डाला जा रहा है, हमें नहीं मालूम

कल अंग्रेजी फिल्म Fast & Furious 8 देखी. रविवार शाम कुछ और विशेष करने को नहीं था और पता चला कि यह फिल्म पिछले दस दिनों से भारत में अच्छी चल रही है तो हम भी टिकट ले कर पीवीआर में घुस लिए.

अच्छी भीड़ मे अधिकांश कॉरपोरेटी नवयुवक-युवतियां थीं और कुछ फ़ास्ट फ़ूड छात्र. लेकिन फिल्म के शुरू होते ही घंटे भर में मुझे लगा कि फंस गए. ऐसा नहीं कि अंगरेजी नहीं आती या अंग्रेजी फिल्म पसंद नहीं, लेकिन यह तो यकीनन हिंदी की किसी सी ग्रेड फिल्म से भी अधिक कचरा लग रही थी.

यह जानकार हैरानी हुई कि ऐसी सात पहले बन चुकी हैं. अंत तक फिल्म में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे सराहा जा सके. पूरी फिल्म में उबाऊ कार रेसिंग, बन्दूक बाजी और सड़क छाप लड़ाई.

यहां तक पढ़कर अगर कोई यह सोच रहा है कि इस तरह की एक्शन फिल्म मेरा cup of tea नहीं,  तो वो गलत है. आज से तीन दशक पहले Mad Max देखी थी, जिसमें तेज भागती बाइक का अराजक गिरोह और उनसे हीरो की जबरदस्त फाइट, स्पीड का रोमांच, अद्भुत फोटोग्राफी और कमाल का डायरेक्शन था!

क्या इतने वर्षों में इसके आगे हॉलीवुड कुछ नया नहीं कर पाया? लगता नहीं, बल्कि Fast & Furious 8 फिल्म 3-डी होने के बावजूद वो बात नहीं लगी जो Mad Max में नजर आयी थी. बल्कि यह फूहड़ता की हद तक अव्यवहारिक और बच्चों की कल्पना से अधिक नाटकीय लगी.

मुझे लगा इस नई फिल्म से अच्छा तो एक नया वीडियो गेम और बना दिया जाता,  कम से कम काल्पनिक दुनिया में आज की पीढ़ी कुछ देर खुद खेल तो लेती. जो अभी हॉल में वो दृश्य देखकर ताली बजा रही थी जिसमें दर्जनों भीषण रोड एक्सीडेंट से लेकर गोलाबारी की आग से निकल कर और हजारों को मारने के बाद भी हीरो के चेहरे पर खरोच तो दूर एक काला छींटा भी नजर नहीं आ रहा था. जबकि Mad Max का हीरो पसीने से तर हलकी बढ़ी दाढ़ी में अपना आक्रोश प्रगट कर पाने में सफल हुआ था.

बता दूं कि ये लेख फिल्म की समीक्षा के लिए नहीं लिखा गया है. मेरी चिंता का कारण है कि ये वातानुकूलित जिम में नकली बॉडी बनाने वालों ने दुनिया को कितना बेवक़ूफ़ बनाया है और अभी कितना और बनाएंगे.

साथ ही यह तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिरकार हॉलीवुड की अधिकांश फ़िल्में दुनिया को क्या परोस रही हैं!

और हम ना जाने कितने करोड़ रुपया एक बेहद घटिया फिल्म के द्वारा पश्चिम देशों को दे रहे हैं. जिसमें ना कहानी, ना कोई नई कल्पना, ना ही जिसकी उम्मीद थी ऐसी कोई अनोखी फोटोग्राफी, ऐसे में किसी सन्देश की सोचना भी मूर्खता होगी.

लेकिन जिस बात ने मुझे सबसे अधिक चिंतित किया, वो था हमारा युवा जो मनोरंजन के नाम पर ऐसी फ़िल्में देख रहा है, वो असल में एक धीमा जहर है जो उसकी मानसिकता को दूषित कर रहा है.

इन फिल्मो में है फाइट के नाम पर अराजकता, आतंक, असमाजिकता का महिमामंडन. और सबसे अधिक हैरानी उन दृश्यों को देख कर हुई जिसमें बर्फ से ढके पर्वतों और जमी हुए समुद्र के ऊपर गाड़ियों को दौड़ा कर, बम फोड़ कर जो आग के सीन दिखाए गए हैं, वो आकर्षक तो बिलकुल नहीं लगते बल्कि भविष्य की भयानकता को दर्शाते हैं.

यह कितना भयावह हो सकता है, इस तरह के कारनामे हमारे अस्तित्व के लिए खतरा हो सकते हैं, यह ये चॉकलेटी फ़िल्मी लोग ना समझना चाहते हैं ना ही यह समझाना चाहते हैं,  बल्कि ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं.

इस तरह की फ़िल्में जाने-अनजाने यह बतलाती हैं कि पश्चिम की जीवन शैली कितनी उपभोग आधारित है, संस्कृति कितनी विनाशकारी है, मानसिकता कितनी नकारत्मक और सोच विध्वंसकारी है.

पश्चिम ने जितना पिछली कुछ सदी में दुनिया का शोषण किया उससे कहीं अधिक पर्यावरण का दोहन किया है. मगर वो भूल रहा है कि उसका अस्तित्व उसी प्रकृति के हाथ में है जिसके साथ वो कला और मनोरंजन के नाम पर खेल रहा है.

मगर उससे बड़ा दुर्भाग्य है कि पूरी दुनिया हॉल में बैठकर अपनी ही मौत के सामान पर ताली बजाती है. रचनात्मकता के नाम पर जो कुछ हमारे मन मस्तिष्क में प्रवेश कर रहा वो हमें क्या बना रहा है, हमें खुद नहीं मालूम.

अगर जानना है तो दर्शक दीर्घा में बैठे किसी से भी बात कर लीजिए, वह मिनट नहीं लगाएगा यह दिखाने में कि वो कितना Fast जीवन जी रहा है और कितना Furious होना चाहता है.

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