अब इसके निवारण से पहले आइये इसके स्कूल स्तर पर हुए परिवर्तन को भी समझ लेते हैं. सरकार ने Right to Education का प्रावधान कर दिया पर पढ़ाना क्यों और कैसे, इस पर कुछ विचार नहीं किया.
हम बात करते हैं कि शिक्षा प्राप्त करने की या ज्ञान लेने की लेकिन असल में हम सिर्फ साक्षर बन रहे हैं. रही बात मध्यम वर्ग के बच्चों को पढ़ाने के लिए, यह वर्ग हमेशा से अपने बच्चों को engineer, doctor या CA इत्यादि बनवाना चाहते हैं.
लगभग 20 वर्ष पहले का पाठ्यक्रम इस प्रकार का था कि यदि आप अपने स्कूल के आखिरी वर्ष यानी कक्षा 12 में अच्छे अंक प्राप्त करते हैं तो इस प्रकार के व्यावसायिक संस्थाओं में आपका प्रवेश हो जाता था.
अधिकाँश बच्चे जो engineering या मेडिकल कॉलेज में जाते थे उन सबको कक्षा 11 और कक्षा 12 में विज्ञान संकाय यानी भौतिक शास्त्र, रासायनिक शास्त्र के साथ जीव विज्ञान या गणित पढना होता है.
उसके लिए यह माना जाने लगा कि यदि आपके कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक नहीं हैं तो आप विज्ञान संकाय के लिए नहीं पढ़ सकते. अब कक्षा 10 के अंकों की मांग बढ़ी.
लगभग यह वही समय था जब सामाजिक परिवर्तन के नाम पर संयुक्त परिवार से लोग एकल परिवार में आने लगे और पति-पत्नी दोनों काम करने लगे, वह भी बच्चे का भविष्य बनाने के लिए.
अब घर पर बुजुर्गों के न होने के कारण, और माता-पिता के कम समय दिए जाने के कारण नयी युवा पीढ़ी मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हो पायी. इसके साथ ही एकल परिवार होने के कारण बच्चों को बहुत अधिक संरक्षण में रखा जाने लगा.
युवा पीढ़ी संघर्ष से और असफलता से डरने लगी. कुछ बोर्ड के परिणामों के बाद आत्महत्या की सूचना भी आने लगी. आनन-फानन में इसकी जड़ तक पहुंचे बिना यह मान लिया गया कि बच्चे पढ़ाई से डर रहे हैं तो कक्षा 10 का बोर्ड हटा दिया गया और साथ में ही यह निर्देश भी दे दिया गया कि कक्षा 8 तक बच्चे को कोई स्कूल फेल नहीं कर सकता.
इन सभी प्रकार के कारणों के एक बार फिर बिना विचार किये कक्षा 10 और कक्षा 12 के बोर्ड का स्तर थोड़ा बहुत गिरा दिया गया. परन्तु इसके साथ ही IIT और MBBS इत्यादि की परीक्षा का स्तर वही का वही रहा तो व्यावसायिक विद्यालय और बोर्ड परीक्षा के स्तर में अंतर बढ़ता चला गया.
इस के कारण कोचिंग सेंटर्स की बाढ़ आ गयी. सन 1995 से एक बहुत बड़े स्तर पर बड़े शहरों में कोचिंग संस्थानों का व्यवसाय शुरू हो गया. सब कोचिंग संस्थान बड़े-बड़े विज्ञापन के दम पर बढ़ने लगे. इस विज्ञापन की कीमत भी अभिभावक की जेब पर ही पड़नी थी. अभिभावक और विद्यार्थी कोचिंग संस्थान पर निर्भर होते गये और स्कूलों ने भी इसको स्वीकार किया और इसलिए स्कूलों का स्तर घटता गया.
इसके साथ-साथ स्कूल अब मात्र सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए नामांकित होने लगे हैं. कक्षा 8 से तो अधिकतर बच्चे बाहर ट्यूशन पढने जाते हैं क्योंकि यदि स्कूल आपके सौभाग्य से पूरा पाठ्यक्रम करवा भी दे तो प्रतियोगी कक्षाओं के लिए तो कोचिंग का सहारा लेना ही पड़ेगा.
जितने युवा भी कक्षा 12 पढ़ कर आयेंगे उनमें से कुल 3% से कुछ अधिक को ही अपनी पसंद का महाविद्यालय मिल पायेगा. इसीलिए प्रतियोगी परीक्षाएं सापेक्ष परिणाम पर हैं. कोचिंग सेन्टर जब साल का लाखों रुपया लेंगे तो स्कूल वाले कहते हैं कि हम भी तो कुछ ले सकते हैं. इसी धारणा से सब फीस बढ़ा दी जाती है.
अब क्योंकि बच्चों ने प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में उतनी गहनता से अध्ययन नहीं किया इसके कारण उनकी नींव कमज़ोर होती गयी. आज उद्योग और शिक्षार्थी, सब मानते हैं कि पिछले 20 वर्षों में बनाने वाले इंजिनीयरों की क्षमता में बहुत कमी आयी है.
इसके साथ ही विद्यार्थी मात्र डिग्री धारण करने को ही अपना लक्ष्य मानने लगे. बार-बार ASER की हर वर्ष की रिपोर्ट में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. सरकारी आंकड़े भी यही बताते हैं.
अब यहाँ पर विद्यार्थी तीन वर्गों में बंट गया. एक तो उस श्रेणी का विद्यार्थी है जो कोचिंग सेंटर से सहारा ले कर उच्च श्रेणी के महाविद्यालय तक पहुँच जाए, जैसे IIT इत्यादि. एक श्रेणी वह है जो पढ़ना ही नहीं चाहता पर घर-परिवार या समाज के दबाव में पढ़ रहा है और इसी कारण से अपेक्षित लाभ नहीं पा रहा है. तीसरी श्रेणी का वह विद्यार्थी है जो पढने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं. सबसे बड़ी परेशानी इस प्रकार के बच्चों को है.
अब जो बच्चा वर्षों से पढ़ कर बड़े स्तर के विद्यालय में प्रवेश पा भी जाता है पर तब तक वह पढ़ाई से थक कर चूर हो जाता है. कई वर्ष शायद 5 या 6 वर्षों से वह यही सुनता आया है कि एक बार IIT चले जाओ तब जीवन बहुत अच्छा हो जाएगा.
इस श्रेणी का विद्यार्थी जब वहां पहुंचता है तो अब आगे पढ़ना नहीं चाहता है. मुझे IIT मुंबई के एक प्राध्यापक ने बताया कि वहां पर आने वाले 30% बच्चे पढना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे पढ़-पढ़ कर थक गए हैं.
क्या ऐसे बच्चे देश का या अपना भविष्य सुधार पायेंगे. मुझे इसमें शक है. एक बात और समझें कि दो वर्ष पहले IIT रूडकी ने 73 विद्यार्थियों को न पढने के लिए निकाल दिया. सभी IIT में कमोवेश यही स्थिति है.
प्रश्न है कि देश का शीर्षतम 1% विद्यार्थी कैसे साल दर साल अनुत्तीर्ण होता जा रहा है? हमें देश के युवाओं की मन:स्थिति समझनी पड़ेगी. इस प्रकार से अगर समझें तो सभी प्रकार के विद्यार्थियों को अंत में नुकसान ही भुगतना पड़ेगा. और अंत में देश की हानि ही हो रही है.