थोथे होते हैं वे संस्कार और आदर्श, जो व्यक्ति के विवेक को अकालग्रस्त कर दें

चलिए एक और प्रदर्शन हवा हुआ. दिल्ली के जंतर मंतर पर पिछले एक महीने से ज्यादा चल रहे, 4 वर्षो से अकालग्रस्त और कर्जे से टूटे हुए तमिलनाडु के किसानों ने आखिर, फिर आने का वादा करके, दिल्ली से विदा ले ली है.

मैंने, तमिलनाडु के इन किसानों के पूरे दिल्ली प्रवास के काल में, उनको बिल्कुल भी याद नहीं किया था. मैंने उनको तब भी याद नही किया था, जब कई, संस्कारी और आदर्शवादी राष्ट्रवादियों का दिल इन किसानों के लिए कसक रहा था.

मैंने इन किसानों को तब भी याद नही किया था जब कई सनातनी, दुर्वासा ऋषि के अवतार में, मोदी जी व बीजेपी को अंतहीन श्रापों से अलंकृत कर रहे थे.

मैं आज भी इन किसानों को नहीं याद कर रहा हूँ लेकिन हां, मैं उन लोगों को जरूर याद कर रहा हूँ, जिनका दिल इन किसानों के लिए धड़का था.

मैं यह बिल्कुल भी नहीं समझ पाता हूँ कि आखिर यह संस्कार और आदर्श इतने संकीर्ण और अधैर्यशील क्यों होते है?

मैं यह बात बहुत अच्छी तरह समझता हूं कि संस्कारो और आदर्शों को अपने सर माथे रखना बड़ी अच्छी बात है लेकिन इसके साथ मैं यह भी अच्छी तरह समझता हूं कि यदि कोई संस्कार और आदर्श, व्यक्ति के विवेक को अकालग्रस्त कर देते है तो वे संस्कार और आदर्श थोथे होते हैं.

यह कैसे हो गया कि यह आदर्श और संस्कार, डिज़ाइनर हरे कपड़ो में लिपटे वामियों और किसानों में फर्क नही देख पाये?

यह कैसे हो गया कि यह आदर्श और संस्कार, खोपड़ी, सांप, बिच्छु और चूहे के साथ अभिनय करने वालो और अकालसे टूटे हुए किसानों में फर्क नहीं देख पाये?

यह कैसे हो गया कि यह आदर्श और संस्कार बिसलेरी की ठंडी बोतलों और रेस्तरां से आये पैक्ड खाने के पैकटों का आनंद लेते पेशेवर धरनाधारियों और ऋण से बर्बाद उजड़े हुए किसानों में फर्क नही देख पाये?

यह कैसे हो गया कि यह आदर्श और संस्कार इस विचारमंथन के काल में निकले वामी विष और राष्ट्रवादी अमृत में फर्क नहीं देख पाये?

यह कैसे हो गया कि यह आदर्श और संस्कार भारत को अस्थिर करने वाली शक्तियों द्वारा प्रायोजित धरने और अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत किसानों के आंदोलन में फर्क नहीं देख पाये?

लोग यह फर्क इस लिए नहीं देख पाये क्योंकि आदर्शों और संस्कारों के दबाव ने उनके विवेक को संकीर्ण और धैर्य को असंयमशील बना दिया है.

हमको एक बात याद रखनी होगी कि भारत जिस कलिमय काल से गुजर रहा है, वहां हमें, हमारे आदर्श और संस्कार सिर्फ इतनी ही रोशनी प्रदान कर सकते हैं जिसमें हम खुद को उजला देख सके लेकिन इस भयावह अंधकारमय काल को विजित करने के लिए यह अपर्याप्त है.

हमें यदि विजयी होना है तो आदर्श और संस्कार से ज्यादा हमें विवेक और धैर्य की रोशनी का सहारा लेना होगा, ताकि आप इसके सहारे अपने शत्रुओं और उनके हथकंडों को देख सके.

मेरा अब तक का यही अनुभव रहा है कि इन्ही तत्वों के अभाव का ही यह परिणाम रहा है कि हर थोड़े अंतराल में, राष्ट्रवादियों के आदर्श और संस्कार उन्हें, शातिर और निश्चित रूप से अनुभवी वामियों के छल के बिछाए जाल में फंसा जाते है.

वैसे, दिल्ली से अकाल से पीड़ित और ऋण से बर्बाद तमिलनाडु के किसानों की हवाई जहाज से विदाई निश्चित रूप से हम सबके लिए एक सबक है जो आदर्श और संस्कारों पर, विवेक और धैर्य के महत्व को समझा जाता है.

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