मेरी दादी मुझे एक कहानी अक्सर सुनाया करती थी.
किसी गाँव में एक औरत थी जिसको बात-बात पर रूठने की आदत थी. उसकी इस आदत से घर वाले भी परेशान हो चुके थे.
एक बार जब वो रूठी तब घर वालों ने मिल कर निर्णय लिया कि कोई भी इसको मनाने की कोशिश नहीं करेगा, रूठी है तो रूठी रहे.
पूरा दिन बीत गया कोई मनाने नहीं आया और भूख से उसकी हालत खराब हो गयी. बेचारी परेशान हो कर घर के बाहर आ कर बैठ गयी ताकि आते-जाते किसी की नज़र पड़े तो कोई मना ले और वो खाना खा सके.
क्योंकि बिना मनाए खाना खाने से मान कम हो जाने का डर था… समस्या बड़ी थी करे तो क्या करे… यही सोच रही थी तभी बरामदे में बँधी बकरी पर नज़र पड़ी.
बकरी बैठे-बैठे मुँह चला रही थी… बस समाधान मिल गया…
उसने कहा – मैं तो रूठी हुई हूँ और मानने वाली भी नहीं हूँ पर तुम मेरे मायके की बकरी हो और इतनी देर से मना रही हो तो तुम्हारी बात कैसे नहीं मानूँ. तुम्हारा मान रख कर खाना खा लेती हूँ और किसी के कहने से तो मानती नहीं.
दिल्ली में तमिलनाडु के किसान धरना दे रहे थे बिना सिर-पैर की माँगों के साथ… मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी…
काँग्रेस ने राहुल गाँधी को वहाँ भेज कर थोड़ा हाइप करने का प्रयास किया, पर आजकल कोई राहुल गाँधी को ही नहीं पूछता है तो उनके मुद्दे पर क्या खाक ध्यान जाना था.
तथाकथित बुध्धुजीवियों ने भी प्रयास किया पर आजकल उनके भाग्य पर भी ग्रहण लगा हुआ है.
अब तो धरना वाले पेड किसान बुरी तरह फंस गए थे तभी मायके की बकरी बन कर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री दिल्ली आ गए और उनसे मिल कर धरना खत्म करने की अपील कर दी.
मायके की बकरी की बात तो माननी ही थी तो धरना खत्म हो गया. सरकार की सेहत पर तो कोई फर्क नहीं पड़ रहा था पर द्रमुक की सेहत अब बिगड़ने वाली थी. मायके बकरी ने बचा लिया.