कभी केश को कभी देश को संवारती रहती हो तुम!

आज की स्त्री, जो अपने प्राथमिक कर्म परिवार की सेवा के साथ-साथ राष्ट्रहित के चिंतन पर भी पूरे सामर्थ्य से लगी हुई है, उन सभी को सादर समर्पित.

(कृपया भावों पर ध्यान दें शब्दों पर नही, शब्द जड़ होते हैं और भाव चैतन्य)

स्वेदरंजित देह के
टिप-टिप बहते नेह के
कटि सीमाओं पर साड़ी कसके
क्या-क्या नहीं करती हो तुम
कभी देश को कभी बर्तनों को
माँजती रहती हो तुम।

बिल हो बिजली का या संसद
निज ध्यान में रहता तुम्हे,
दूध का हिसाब और बजट भी
मालकिन कहता तुम्हे,
आय-व्यय को संतुलित करने
क्या-क्या नहीं करती हो तुम
कभी केश को कभी देश को
संवारती रहती हो तुम।

अन्न की चिंता तुम्हे है
घर की भी और गांव की
आँचल से करती हो साधन
तेज धूप में छांव की
विष भरे शब्दों को सुनती
क्या-क्या नहीं सहती हो तुम
कभी वेश को कभी देश को
भांजती रहती हो तुम।

यथार्थ की ही तरह
आभासी जग की शक्ति हो,
हर क्षेत्र में पहचान तेरी
आत्मा की अभिव्यक्ति हो,
तुम बिन यह जग न हो जाए सूना
क्या-क्या नहीं कहती हो तुम
कभी अनाज को कभी समाज को
छानती रहती हो तुम।।

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