अब आइये एक और प्रश्न पर गौर करते हैं कि हम अपने बच्चों को पढ़ाना क्यों चाहते हैं? हम कहते हैं शिक्षा के लिए, ज्ञान के लिए परन्तु अधिकाँश भारतीय लोग बच्चों को एक अच्छा रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए ही पढ़ाते हैं.
[महँगी शिक्षा : वृद्धि, कारण और निवारण, भाग-1]
आज के मध्यम वर्गीय अभिभावक जो शायद 70 या 80 के दशक के जन्में लोग हैं अपने-अपने समय में पढ़ लिख कर कुछ आजीविका कमा रहे हैं, यह समझते हैं कि यदि और पढ़ लेते तो और बेहतर ज़िन्दगी जीते और इसी कारण से अपने बच्चों को आगे और आगे पढ़ाना चाहते हैं.
अब क्योंकि यह पढ़ाई जो रोज़गार के लिए हैं डिग्री पर आधारित है बनिस्पत ज्ञान के, आज का युवा डिग्री लेकर तो आता है परन्तु ज्ञान नहीं. जब से अंग्रेजों ने हमारी पुरानी गुरुकुल पद्धति के स्थान पर अपनी शिक्षा पद्धति हम पर थोप दी, तभी से ज्ञान की अवनति होनी शुरू हो गयी.
आप स्वयं देखें कि जितने भी इंजिनीयरिंग कॉलेज हैं उनके विज्ञापन में यही है कि हमारे यहाँ फलां फलां कम्पनियां आती है और फलां प्रतिशत बच्चों को नौकरी मिल गयी. अभिभावक भी वही पढ़ कर बच्चे को वहां भेजते हैं.
अब नौकरी या शिक्षा की गुणवत्ता क्या है इस पर कोई प्रश्न नहीं और न ही देश सोचना चाहता है. इसी बदलाव के तहत अब शिक्षण संस्थान, अध्यापक और विद्यार्थी भी आ गए.
अब देखिये भारत में सर्वोच्च शिक्षण संस्थान IIT भी विश्व के शीर्ष 100 में अपना स्थान मुश्किल से पाते हैं. अरे देश का शीर्षतम 1% विद्यार्थी जो पूरे विश्व में अपने काम का डंका बजाता है फिर भी उस संस्था का नाम शीर्ष के नाम पर नहीं आता है.
उसका कारण है कि विश्व में शिक्षण संस्थान के लिए जो भी तालिका बनायी जाती है उसमें यह देखा जाता है कि वहां पर शोध कितनी हुई है. अब भारत में विद्यार्थी शोध या ज्ञान पाने के लिए नहीं पढता, इसी लिए इस श्रेणी में इसे कम अंक प्राप्त होते हैं.
आज बहुत से शिक्षाविद मानते हैं कि मैकाले की शिक्षा पद्धति से सब हानि हो रही है परन्तु इस पद्धति से अपने पाठ्यक्रम को बदलने का काम न के बराबर ही हो रहा है. तो जैसी कहावत है कि माया मिली न राम. हमें न तो अच्छा रोज़गार प्राप्त होता है और न ही ज्ञान.
इसके अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक पहलू को भी समझें. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आप देखें तो स्थिति और भी भयावह है. IIM बंगलुरु की एक रिपोर्ट के अनुसार मात्र साल 2000 से 2009 में भारतीय विद्यार्थियों के बाहर जाने में 256% की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है.
आप यह अनुमान लगा सकते हैं कि यहाँ पर जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर नीचे जाता रहा आर्थिक रूप से सक्षम अभिभावक ने अपने बच्चों को बाहर भेजना शुरू किया. समस्त उद्योगपति और शीर्ष नेताओं के पुत्र पुत्रियाँ बाहर पढने जाते है तो यहाँ की शिक्षागत पीड़ा का अनुमान उन्हें कैसे लगे?
ASSOCHAM की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 6 लाख विद्यार्थी बाहर जा रहे हैं प्रतिवर्ष. इसे मात्र आर्थिक रूप से देखें तो लगभग उसी रिपोर्ट के अनुसार भारत को 1700 करोड़ डॉलर का प्रति वर्ष नुकसान है यानी 1.2 लाख करोड़ प्रतिवर्ष.
ध्यान रहे भारत सरकार का कुल बजट 20 लाख करोड़ का है. समस्त पश्चिम देश क्यों चाहेंगे कि आपकी शिक्षा बेहतर हो? भारत की शिक्षा व्यवस्था में जब गुणवत्ता की कमी हो तो विदेशियों को दोहरा फायदा होता है. एक तो यहाँ का होनहार युवा उनको धन देता है दूसरे वहां पर महंगी पढ़ाई के लिए कर्ज़ लेता है और उसे चुकाने के लिए वहीं का हो कर रह जाता है.
दूसरा हमारे देश का सामाजिक ताना बाना जो अंग्रेजों ने तोड़ा उसका भी बहुत बढ़ा योगदान है. कुछ एक व्यवसाय प्रतिष्ठा में श्रेष्ठ बन गए और कुछ निकृष्ट. हम सब शहरी लोग अपने क्षेत्र में बढई, plumber, electrician इत्यादि व्यवसाय के लोगों को हीन दृष्टि से देखते हैं जबकि वह सबकी ज़रुरत के अतिरिक्त छोटे मोटे इंजिनीयर से अधिक कमा लेता है.
और तो छोडिये हमने किसान को भी निकृष्ट मान लिया जो सबका अन्नदाता है. जिसके बिना हम जी ही नहीं सकते. कोई संभ्रांत परिवार अपने बच्चों को किसान नहीं बनाना चाहता और किसान का बेटा शहर जा कर पढना चाहता है. यहाँ तक कि किसान भी उसे खेती में नही डालना चाहता क्योंकि आज उसे पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध नहीं होता अपने काम से.
वैसे तो किसान, plumber, electrician, बढईगिरी में किसी शिक्षा का प्रावधान आजकल नहीं है तो यह सब लोग भी समाज की हीनता के कारण अपनी नई पीढ़ी को व्यर्थ के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना चाहते है इसी कारण शिक्षण संस्थाओं पर काम की शिक्षा न देने पर भी बोझ बढ़ता गया.
एक अजीबोगरीब सा ताना बाना बन गया है जिसमें आप बच्चों को पढ़ाइये यह सोच कर कि उसका भविष्य उज्जवल होगा और बच्चा भी आपके साथ लग कर शिक्षा संस्थान में अरुचिपूर्ण और व्यर्थ के विषय पढ़ कर डिग्री लेता है और अन्त में किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पाता है.
सिवाय कुंठा के उसे कुछ प्राप्त नहीं होता है. हम भी और आगे की सोच न रख कर बस युवा पढ़ जाए यही सोच कर इतिश्री कर लेते है. मुझे तो एक गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं : हम किसी गली जा रहे हैं अपना कोई ठिकाना नहीं है.