कहते हैं तक्षशिला विश्वविद्यालय के चार द्वार थे जिन पर खड़े द्वारपाल चारों दिशाओं से आने वाले विद्यार्थियों की परीक्षा लिया करते थे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का सिंहद्वार भी बहुत बड़ा है. मैं प्रतिदिन इससे होकर निकलता हूँ और प्रत्येक आवागमन पर इसकी विशालता के सम्मुख शीश झुका लेता हूँ.
द्वार के शीर्ष पर लहराता पीत ध्वज जिसमें देवी सरस्वती विराजमान हैं द्वार को एक अद्भुत आभा प्रदान करता है. देवी ॐकार में विराजमान हैं तथा उनके संग अक्षर रूपी ब्रह्म ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ के स्वरूप में विद्यमान है.
विद्या से अमरत्व प्राप्त होता है यह जानकर कुछ लोग अमृतवर्षा की आकांक्षा करते हैं जो इस मन्त्र का सही भावार्थ नहीं है. विद्या प्राप्त होने का सही अर्थ है यह जान लेना कि मुझे क्या जानना है.
शतायु होने पर भी व्यक्ति संसार का समूचा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. अतः कम से कम उतने के लिए प्रयास करना चाहिये जितने में परिवार के भरण पोषण सहित राष्ट्र के प्रति योगदान दे सकें.
अथर्ववेद में आया है:
‘भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपसेदुरग्रे.
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसं नमन्तु..’
(अथर्ववेद. 19. 41. 1)
लोक कल्याण की इच्छा से ऋषियों ने तपस्या की. इस तप से राष्ट्र, बल तथा ओज उत्पन्न हुए. अतएव बुद्धिमान जन राष्ट्र के प्रति समर्पित हों.
‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ के अतिरिक्त तीन सूत्र और प्रचलित हैं : ‘विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्’, ‘विद्या ददाति विनयम्’ तथा ‘सा विद्या या विमुक्तये’. यह चारों महावाक्य चार पुरुषार्थों की ओर इंगित करते हैं : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. किस विषय का ज्ञान होना उचित है इसका ज्ञान होना ही अमरत्व की प्राप्ति है.
विद्या रूपी अमरत्व वह प्रेरणा है जिसकी अनुभूति से व्यक्ति स्वयं ज्ञान ओर बढ़ चलता है. विद्यार्थी का यह धर्म है. विद्या रूपी धन संचित हो सके इसके लिए यत्न करना अर्थ का उपार्जन है. अतः सभी धनों में विद्या की प्रधानता है.
विद्या रूपी धन का संचय करने के उपरांत जीविका कमाने और राष्ट्र निर्माण हेतु उसका उपयोग हमें समाज में स्वीकार्य बनाता है अतः व्यक्ति के चरित्र में विनय होना अनिवार्य है. यह कामरूपी सूत्र हुआ.
धर्म का पालन, अर्थ के लिए जतन और समस्त सांसारिक भोग प्राप्त कर लेने पर भी जो कुछ सीखा है जाना है वह व्यर्थ नहीं जाता. उस सीख को, ज्ञान को परमात्म तत्व की खोज में लगा देने से व्यक्ति बन्धनों से मुक्त हो जाता है. अतः विद्या वही है जो मुक्त करे.
इष्ट की आराधना का ध्येय भी यही होना चाहिये कि ईश्वर हमारे पुरुषार्थ और सामर्थ्य की रक्षा करें. हम अपनी क्षमता को पहचाने तदनुसार कर्म करें. एक व्यक्तिगत प्रसंग बताता हूँ.
मैं कक्षा तीन में था जब हनुमान चालीसा पढ़ी थी. तब हम प्रयाग में रहते थे. हनुमान चालीसा इसलिए पढ़ी थी क्योंकि बड़ों को देखकर पूजा करने का शौक चढ़ा था. तब उसमें केवल एक वाक्य समझ में आया था ‘जो शत बार पाठ कर कोई, छूटहिं बंदि महासुख होई.’
मैंने शताब्दी एक्सप्रेस के बारे में बड़ों से सुना था क्योंकि हमारे घर के समीप रेलवे लाइन थी. पूछने पर शताब्दी शब्द का सन्धि विच्छेद भी ज्ञात हुआ- शत माने सौ, अब्दि माने अवधि. इस तरह शत का अर्थ सौ पता था बाकी जोड़ घटा कर मैं स्वयं समझ गया कि यह छोटी सी पुस्तक जिस पर हनुमान जी बने हैं उसे सौ बार पढ़ने से महासुख की प्राप्ति होती है.
संकल्प लिया गया कि सौ दिन बिना नागा पाठ करना है. पाठ पूरा हुआ किंतु महासुख की गन्ध तक न आई. तब निर्णय हुआ कि अब पाठ न किया जाए बल्कि स्कूल से लौटने पर एंटरटेनमेंट के अन्य साधन खोजे जाएँ. साधन तो मिल गए परन्तु हनुमान जी ने पीछा न छोड़ा.
कहते हैं कि मंत्रोच्चार करते करते व्यक्ति मन्त्रमय हो जाता है. ऐसा ही मुझ बालक के साथ भी हुआ. सौ बार पाठ करने से मस्तिष्क में हनुमान चालीसा गूँजती रही. धीरे धीरे कई पंक्तियों के अर्थ स्वतः समझ में आने लगे.
इस प्रकरण से ज्ञान हुआ कि जब कोई विषय समझ में न आए तो बार बार पढ़ो. वह दिव्य अनुभूति थी. इस प्रकार हनुमान जी मेरे प्रथम गुरु हुए.
दो माह पूर्व जब मैं ज्वर से पीड़ित था तब पूजा करने की मनाही थी. पन्द्रह दिन भगवान् के विग्रह के समीप भी नहीं गया. मानसिक रूप से बड़ी विकट स्थिति थी. तब सनातन कालयात्री जी ने कहा कि चिंता न करो, बिस्तर पर पड़े रहो यह प्रकृति का अपना तरीका है तुम्हारे भीतर से सारी गन्दगी निकाल देगी, आत्मचिंतन का स्वर्णिम समय है अतः मनन करो.
इसी क्रम में एक रात लेटे हुये कुछ सोच रहा था. तपती हुई देह के मन में आधी नींद में तानपूरा बजने लगा. प्रायः क्लासिकल सुनता हूँ इसलिए दिमाग में कहीं कोई तार टच कर गया होगा. साथ ही मानस की पंक्तियाँ गूँजने लगीं. क्या बज रहा था ये नहीं पता था.
तभी हनुमान चालीसा आरम्भ हो गयी. विचित्र बात ये हुई कि ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर जय कपीस तिंहु लोक उजागर…’ के बाद कुछ याद ही न आवै. बार-बार यही दो लाइन.
तभी मेरी नींद खुल गयी. मन में दोहराया तो भी वही हाल. अब ये तो स्वीकार नहीं था कि हनुमान चालीसा भूल जाएँ. डेस्क में से पुस्तिका निकाली आगे की लाइन देखी, आँख में आंसू आ गए तब मन हल्का हुआ और फिर पूरी नींद पूजा चलती रही.
अगले दो दिन से ही स्वास्थ्य लाभ भी होने लगा. सनातन कालयात्री जी ने कहा- जाके गति है हनुमान की, ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषान की.
मैं कभी का. हि. वि. वि. का छात्र नहीं रहा. इसका दुःख तो होता है साथ ही इस बात का सन्तोष भी है कि इसी विश्वविद्यालय के प्रांगण में एक पीएचडी अध्येता ने मुझे उच्चतर गणित सिखाई थी.
इसी विश्वविद्यालय के आवास में रहकर गरमी की रात में जब छत पर शयन करते तो एनसीईआरटी की पुस्तक में समझाया गया पैरेलैक्स मेथड का प्रयोग तारों पर करने का भरसक प्रयत्न करते थे. बचपन में विश्वविद्यालय परिसर में घूम घूम कर बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं देखी थीं.
यहीं खेला, बड़ा हुआ सब कुछ झेला जो बीत गया. कोई जाने या न जाने इस विश्वविद्यालय के पेड़ मुझे जानते हैं. मैं अभी भी संस्कृत, थ्योरेटिकल कम्प्यूटर साइंस और मैथमेटिकल फिज़िक्स पढ़ना चाहता हूँ. विद्यार्जन ही मेरा जीवन है.
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता है :
जो पूजायें अधूरी रहीं
वे व्यर्थ न गयीं
जो फूल खिलने से पहले मुरझा गये
और नदियां रेगिस्तानों में खो गयीं
वे भी नष्ट न हुयीं
जो कुछ रह गया पीछे जीवन में
जानता हूँ
निष्फल न होगा
जो मैं गा न सका
बजा न सका
हे प्रकृति!
वह तुम्हारे साज पर बजता रहेगा.
श्रद्धेय श्री पांडे जी, अति सुंदर व न केवल पठनीय वरन अनुकरणीय लेख है/ ऐसे प्रयास ही भारतीय शिक्षित जन को अपने अमूल्य प्राचीन से जोडेंगे/ यह राष्ट्र को एक बहूमूल्य अवदान है/ मंगल
कामना/