एक अधूरा उपन्यास – 3 : ख्यालों के पुलाव नहीं होते पात्र

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और ये हर बार तुम अज्ञेय सी क्लिष्ट भाषा में बात क्यों करने लगते हो.

क्यों उपन्यास की गुणवत्ता में भाषा का कोई सहयोग नहीं होता?

तुम्हारा मतलब है प्रेमचंद और गुरुदत्त अच्छे उपन्यासकार नहीं थे?

मैंने ये तो नहीं कहा…

भाषा ऐसी हो जो सबको समझ आए… प्रेमचंद पढ़ने वालों को भी और अज्ञेय पढ़ने वालों को भी…

ये इस पर निर्भर करता है कि तुम क्लास के लिए लिख रहे हो या मास के लिए…

क्यों मास को पढ़वाते हुए उन्हें क्लास के स्तर पर लाने का रचनात्मक प्रयास कौन करेगा फिर?

अर्जुन के पास जवाब नहीं था तो बात अधूरी ही छोड़कर वो नए पात्रों की तलाश में बाज़ार की ओर जाने लगता है.

क्यों बंधु हम नए पात्र खरीदने आए हैं क्या?

आप कृपा करके अपनी जुबान थोड़ी देर के लिए बंद करेंगे? वहां सामने पुस्तक मेला लगा है हम वहीं जा रहे हैं… अर्जुन तुनक कर बोला.

– जी.. जो हुकुम मेरे आका…

अर्जुन पुस्तक मेले का अवलोकन करने लगता है. पुस्तक मेला कुछ अजीब सा था एक स्टाल पर सिर्फ एक ही लेखक की किताबें रखी हुई थीं. अर्जुन दोनों ओर नज़र दौड़ाता है. सबसे पहला खलील जिब्रान, पास में अमृता प्रीतम, उसके पास अज्ञेय, फिर सुकरात, फिर दुष्यंत कुमार, और भी बहुत सारे…. और सब दुकानों के ऊपर बड़ी बड़ी तख्तियों पर रचनाकारों के नाम लिखे हुए थे जिससे पता चलता था कि कौन सी दुकान पर किस रचनाकार की किताबें मिल रही है.

अर्जुन देवताले जी की किताबों को उलटने पलटने लगता है…

सिर्फ एक औरत को समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको
क्योंकि औरत सिर्फ भाप या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फनी भी है समूचे ब्रह्मांड की
जिसका……………….

जब देवताले जी को औरत को समझने के लिए हज़ार साल की ज़िंदगी चाहिए तो मेरी क्या औकात कि मैं एक नारी को अपने उपन्यास में पात्र बनाकर उसके जीवन की ऊह-पोह उसके ह्रदय की गहराइयों और चेहरे पर आने वाली लहरों को समझ सकूं. – अर्जुन ये सोच ही रहा था कि उसे बाईं ओर से कुछ औरतों की चीख पुकार सुनाई दी…. एक स्टाल पर कुछ औरतें खड़ी थीं उस स्टाल की तख्ती पर लिखा था तसलीमा नसरीन…

– बंधु चलिए ना वहां शायद आपको आपके उपन्यास की नायिका मिल जाए. – “वह” अर्जुन को फुसलाते हुए बोला.

– अरे तुम क्यों मेरे पीछे पीछे चले आते हो. तुमको उन किताबों के बीच छोड़ कर आया था ना? पढ़ते क्यों नहीं वो सब? तुम जितना उनको पढ़ोगे मेरे उपन्यास का नायक उतना ही प्रतिभावान, बुद्धिमान और चरित्रवान होगा. अर्जुन ने बड़े भाई की तरह समझाते हुए कहा.

लेकिन “वह” भी कहाँ मानने वाला था बोला- वाह! मेरे लिए नायिका ढूँढने निकले हो और मैं ही ना देखूं… देखो वो तसलीमा जी की शीला क्या कह रही है….

“जीवन बीता जा रहा
जबरन उसे रोकने की कोशिश की,
रास्ता रोककर सामने खड़ी हो गयी…
फिर भी क्या वह सुनता है किसी की बात.
यह मेरा ही जीवन, लेकिन
मेरा हुक्म नहीं मानता यह फिसलकर तुम्हारी ओर जाता है.
कैसी धृष्टता है देखो…
मैं सूनी पड़ी रहती अकेली सूने घर में और
सारा वैभव त्याग
मुझे दरकिनार कर यह जाता है तुम्हारा पदतल छूने….”

– यार कुछ तो अपनी उम्र का ख़याल करो, शीला सिर्फ 19 साल की है और मंसूर से प्यार करती है. – अर्जुन बोला.

लेकिन बंधु फिर मंसूर दोस्तों के साथ मिलकर शीला के जीवन को कैसे छिन्न-भिन्न कर देता है क्या नहीं जानते??

– भई शीला उस परिवार से है जहां पर लड़कियों को न सिर्फ घर से अकेले निकलने पर रोक है बल्कि उसकी इच्छाओं का इस तरह से दमन किया जाता है कि फिर वह पिंजरे में बंद उस गानेवाली चिड़िया की तरह हो जाती है कि जिसका गलती से भी दरवाज़ा खुला रह जाए तो वह उससे बाहर निकल जाती है लेकिन छोटे से पिंजरे में इधर उधर फुदकने वाली चिड़िया बड़े आसमान में चील और कौओं से खुद की रक्षा करना नहीं सीख पाती.

इसका मतलब गाने वाली चिड़ियों को आसमान में उड़ने का कोई हक नहीं? फिर उसे पिंजरे में रखने का हक आपको किसने दिया? उसे तो शीला नहीं शिला होना चाहिए हमेशा…

– भैया माफ़ करो मैं तो उपन्यास की नायिका की बात कर रहा था. और वो उपन्यास तथाकथित सभ्य समाज के सच को उघाड़ता हुआ है. और मैं अपने उपन्यास को समाज में व्याप्त बुराइयों और उसे ठीक करने के उद्देश्य से नहीं लिख रहा. मेरे उपन्यास में कुछ अलग होना चाहिए…

– अलग बोले तो?

– अलग बोले तो कुछ डिफरेंट….

– अच्छा! अलग यानी डिफरेंट होता है ये तो मुझे पता ही नहीं था…

– यार टांग मत खींचो… अलग मतलब सबसे भिन्न…

– अच्छा अलग मतलब सबसे भिन्न होता है?

– यार तुम शब्दों पर क्यों जाते हो, मेरे कहने के पीछे जो अनकहा छूट रहा है उसे पकड़ो ना… अर्जुन बौखलाता हुआ बोला.

– जी, पकड़ लिया..

– अरे वाह! क्या समझे फिर?

– बंधु ये तो बड़ी मुश्किल बात पूछी. मैं ठहरा तुम्हारे उपन्यास का नायक, तुम्हारे भाव पकड़ सकता हूँ,  विचार पकड़ सकता हूँ लेकिन बोलूंगा तो तभी ना जब तुम डायलॉग्स दोगे, अब बताओ क्या कहूं?

– गलती मेरी ही है जो मैं तुम जैसे मूढ़ से पूछ रहा हूँ. यार तुम ये चन्दा मामा और पंचतंत्र की कहानियां पढ़ना छोड़कर बड़े-बड़े लेखकों के उपन्यास क्यों नहीं पढ़ते?

– पढ़ा है ना..

– क्या?

गोते की गहराई फल देने में समर्थ हो सकती है
लक्ष्य की ऊंचाई कदम उठाने में चरितार्थ हो सकती है
आदमी के पास भक्ति है, शक्ति है और विरक्ति भी है
पर सोचे बिना करने वालों के लिए निरर्थक हो सकती है…

– ये कहाँ पढ़ा? और इसका मतलब?

– कहीं भी पढ़ा हो, मैंने पढ़ा है मतलब किसी न किसी ने तो लिखा होगा, मैं तो लिख नहीं सकता, सिर्फ बोल सकता हूँ वह भी वो जो तुम बुलवाते हो… और फिर होठों में धीरे से बुदबुदाता हुआ “वह” बोला… जिस दिन मैं अपना मुंह खोल दूंगा ना उस दिन तुम्हें पूरा ब्रह्माण्ड उसमें दिख जाएगा…

अर्जुन आधा अधूरा ही सुन पाया… क्या? क्या? क्या?

“वह” तुरंत बात बदलते हुए बोला – जी मैं यह कह रहा था कि सिर्फ बैठे-बैठे ख्यालों का पुलाव पकाते रहने से या दूसरों के उपन्यासों के पात्रों पर अध्ययन करते रहने से उपन्यास नहीं बना करता.. घर चलो कलम उठाओ और लिखना शुरू करो… किसी महान उपन्यास की रचना का ख़याल छोड़ दो, तुम तो बस लिख डालो, उसे महान बनना है या खाली मकान ये पाठकों को तय करने दो… जो कुछ भी तुमने पढ़ा है … वो अपने आप तुम्हारे लेखन पर काम करेगा… तुम्हारे प्रयास करने से उसका वो रूप नहीं आ पाएगा जिस रूप में तुम्हारा उपन्यास तुम्हारी कलम से उतरना चाहता है…

लेकिन तुमने ही तो कहा- सोचे बिना करने वालों के लिए निरर्थक हो सकती है…

– मैंने नहीं कहा किसी कवि ने कहा है..

– हां वही…

– उन्होंने कहा और तुम मान गए?

तो?

हे प्रभु! तुमको भी यही एक लेखक मिला क्या मेरे लिए!! – “वह” आसमान की तरफ दोनों हाथ उठाते हुए बोला.

अर्जुन ने अपनी आवाज़ को संयमित करते हुए कहा- तुम मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो? मैं सिर्फ़ ये चाहता हूँ कि मेरे उपन्यास में चिंतन हो, अध्यात्म हो, नायक ऐसा हो जैसा न कभी हुआ न कभी होगा..

– और नायिका?

– पता नहीं

धुन के धनी के लिए मंजिले कभी दूर नहीं होती
तूफानों में झुक जाने को वे मजबूर नहीं होती
चिंतन की दीवारों पर चढ़ जाने मात्र से ही
आदमी की दलीलें कभी मशहूर नहीं होती…

अभी इसका मतलब मत पूछना ये भी उन्हीं कवि महाशय की पंक्तियाँ है.. आप घर चलिए वहीं बताता हूँ…

उपन्यास जारी है…

– माँ जीवन शैफाली 

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