स्कूल में था तब नागरिक शास्त्र की पुस्तक में विविध प्राणिज खाद के प्रकारों का वर्णन आता था. उसमें भेड बकरी की मींगणी, गाय-बैल का गोबर तो था ही लेकिन मनुष्यों के मल का भी स्पष्ट उल्लेख था. मराठी में उसे सोनखत (खत = खाद) कहते थे.
मुझे अभी भी वो चित्र याद है – टाट लपेटे हुए बांस की झोपड़ी सी जिसके नीचे चार पहिये लगाए थे. खेत में हल्का सा खोदकर उसपर ये झोपड़ी लगती थी. धोने के साथ मिट्टी भी डालनी होती थी और बाहर आ कर उस झोपड़ी को थोड़ा आगे सरकाना होता था ताकि अधिकाधिक जमीन कवर हो.
शहर में मिले एक किसान से मैंने पूछा था – काका, क्या ये सोनखत ठीक होता है खेत के लिए? उन्होने ताल ठोक कर हामी भरी थी. मैं आश्वस्त हुआ था.
समय बीतता गया, देखता गया हूँ कि अब रसायनों ने उर्वर धरती को बंजर कर रखा है. जैसे गठिया दर्द के रोगी को पेनकिलर की गोली शुरू में आधी से देखते-देखते पाँच छह तक लेनी पड़ती है फिर भी असर नहीं होता इसी तरह रासायनिक खाद के साथ भी हुआ है. अब जाकर हम फिर से प्राकृतिक खाद की बात कर रहे हैं .
लेकिन एक फर्क हुआ है मानसिकता में. अब लोग प्रोसेस किया हुआ याने सुखाया हुआ गोबर का चूर्ण पैकेट में खरीदते हैं. पैकेट फाड़कर दस्ताने पहनकर उसे खेतों में छिड़कते हैं.
किसान परिवारों की लड़कियां और महिलाएं भी अब ताजे गोबर से किनारा करती है. लगता है कुछ सालों में गोबर के पैकेट्स भी आकर्षक चमकीले बन जाएँगे, उन्हें पैक करने के इंपोर्टेड कारखाने लगेंगे और उन पैकेट्स पर छपा होगा – मानवी हस्तस्पर्श से मुक्त – untouched by hand जो खाद्यान्नों के पैकेट्स पर छप रहता है.
या फिर यहाँ का गोबर विदेश भेजकर वहाँ पैक होकर भारत को re export होगा – असली भारतीय गायों का गोबर, packed in USA!
जब कि ताजा गोबर या अन्य जीवजन्य खाद हैंडल करने से किसी को जहरबाधा या कोई बीमारी होने का कभी सुना नहीं. उस पीढ़ी के लोग भी आज के मरियलों से अधिक सशक्त होते थे.
लगता है रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड्स ने हमारे शरीर में जहर तो घोला ही है – पंजाब से आती कैंसर एक्सप्रेस के बारे में पढ़ा ही होगा आप ने – लेकिन उससे कई ज्यादा जहर उन्हें बेचने वालों ने हमारे मनों में घोला है .
गोबर, मींगणी या मानव मल को प्राकृतिक खाद के रूप में न देख कर उसे देखने का नजरिया बदला गया है ताकि उसके प्रति घृणा ही उत्पन्न हो .
शुद्धिकरण एवं प्रायश्चित के लिए गोमय गोमूत्र का ही प्रयोग विहित है, इसे विधि की वक्रता कहें या काव्यगत न्याय?