नेता मरता रहता है, अमर होते हैं चमचे

मेरा अन्दाजा है, इस समय देश में राजनीति के क्षेत्र में लगभग पांच हजार चमचे काम कर रहे हैं. ये प्रधान चमचे हैं. फिर इनके स्थानीय स्तर के उपचमचे और अतिरिक्त चमचे होते हैं.

ये सब हीनता, मुफ्तखोरी, लाभ और कुछ वफादारी की डोर से अपने नेता से बंधे रहते हैं. इनमें गजब की अनुशासन-भावना होती है.

अगर किसी उपचमचे को जनपद की सीट का टिकट चाहिए तो वह सीधा नेता के पास नहीं जायेगा. वह प्रधान चमचे से कहेगा और प्रधान चमचा नेता से बात करके उसका काम करायेगा.

इस तरह नेता का दुनिया से सम्पर्क सिर्फ चमचे के मारफत होता है और कुछ दिनों में उसका यह विश्वास हो जाता है कि इस विशाल दुनिया में मेरे चमचों के सिवा कोई और नहीं रहता.

अपनी दुनिया को इस तरह छोटा करके जीने का सुख नेता कुछ साल भोगता है और फिर उसी नाव पर इस सुख का बोझ उतना हो जाता है कि नाव नेता को लेकर डूब जाती है.

चमचे तैरकर किनारे लग जाते हैं और दूसरे नेता के चमचे हो जाते हैं. उसके डूबने तक वे उस नेता के चमचे बने रहते हैं. नेता मरता रहता है, चमचे अमर होते हैं.

चमचा ज्यों-ज्यों परिपक्व होता जाता है, त्यों-त्यों नेता बनता जाता है. उसके अपने उपचमचे तरक्की पाकर चमचे हो जाते हैं और उसकी नाव डूबा कर खुद किनारे लग जाते हैं.

कुछ चमचे जीवन-भर सिर्फ चमचा बने रहने का व्रत पालते हैं और पचीसों नेताओं को डुबाने का पुण्य प्राप्त करते हैं.

चमचे की दिल्ली यात्रा (परसाई जी की डायरी से)

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