आँख खोलकर तो देखो, प्रतिपल हो रहे हैं चमत्कार

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चमत्कार प्रतिपल हो रहे हैं! आंख खोल कर देखो, थोड़ी संवेदना जगाओ.

कभी वृक्ष को गले लगाओ, कभी पड़े रहो भूमि पर, जैसे कोई मां की गोद मे पड़ा हो, सब भूल कर, सब बिसरा कर.

और उसी पृथ्वी से तुम्हारे भीतर एक अपूर्व पुलक का फैलाव शुरु हो जायेगा. है तो हम पृथ्वी के हिस्से.

आदमी में आधा आकाश है आधी पृथ्वी है. कभी लेट जाओ पृथ्वी पर हाथों को फैलाकर नग्न आलिगंनबद्ध और तुम्हारे भीतर जो पृथ्वी है, वह बाहर के पृथ्वी से संवाद करने लगेगी.

कभी आकाश की तरफ आँख खोलकर बैठे रहो, देखते रहो देखते रहो आकाश को. जाओ दूर- दूर, उडने दो आँखों को, बन जाने दो आँखों को पक्षी. किसी मंदिर में तुम्हे जाने की जरुरत नहीं रहेगी.

यहीं चारों तरफ वह विराजमान है.

और अचानक एक दिन तुम पाओगे  आंसू बहने लगे हैं, अकारण बहने लगे हैं. अहेतुक बहने लगे हैं. बहाने की कोशिश मत करना. हाँ जहां बह सकते हो, उस तरंग में अपने को ले जाना.

जहां दीवाने बैठते हो चार, होते हो मस्त, गाते हो गीत, प्रभु की स्तुति करते हो, नाचते हो, आंसू उनके बहते हो, उनके पास बैठना. उनका रंग तुम्हे भी लग जायेगा.

– ओशो

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