‘जाति-मज़हब से मतलब नहीं, या तो परिणाम दें या जाएं’

अक्सर ऐसा देखा जाता है या यूँ कहें कि ऐसा ही होता है कि जब भी किसी राज्य की सरकार बदलती है, तो नयी सरकार सबसे पहले अपने मन मुताबिक शीर्ष अधिकारियों एवं ब्यूरोक्रेट्स को बदलती है.

बदलना भी चाहिए… क्योंकि इनमें से कई अधिकारी पुराने शासक के मोहरे होते हैं जिन्हें शासक अपनी राजनीतिक उपयोगिता या काबिलियत (चाटुकारिता) के अनुसार महकमों में फिट किये होते हैं.

सरकारें आती-जाती रहती हैं पर ये उच्च अधिकारी अपने चहेते मालिकों का हर पांच वर्ष बाद आदेश बजाते हुए अंत में सेवानिवृत्ति की उम्र तक पहुँच जाते हैं.

इसे ऐसे समझें…

उत्तर प्रदेश में जब मायावती की सरकार बनी थी तब मुलायम के सभी चहेते शीर्ष अधिकारियों को हटाकर/ तबादला कर के बहन जी ने अपने लोगों को जगह दी थी. जो पहले शंट में पड़े धूल फाँक रहे थे उन्हें भी मलाईदार जगह मिली.

फिर जब अखिलेश मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मायावती के लोगों को हटाकर अपनी नई टीम बनाई जिसमें उनके अपने मन मुताबिक के लोग थे.

इस नई टीम में ना सिर्फ जाति-मजहब का ख्याल रखा गया था… बल्कि पिता और दोनों चाचाओं के हितों को भी प्रॉपर सम्मान दिया गया था.

क्योंकि सरकार सिर्फ अखिलेश की तो थी नहीं… मुलायम और शेष भ्राता द्वय भी खुद को उतना ही मुख्यमंत्री मानते थे जितना अखिलेश अपने आप को…. असली समाजवाद का मतलब भी तो यही होता है.

उत्तर प्रदेश में इस हालिया चुनाव से ऐन पहले तक सभी शीर्ष अधिकारी यह मानकर चल रहे थे कि शायद सरकार बदल जायेगी और यही मानकर अपने दिन भी गिनने शुरू कर दिए थे.

सरकार बदल गई…. भाजपा सत्ता में आ गई. ब्यूरोक्रेट्स जब तक अपना सामान पैक करते, उतने में खबर आई कि योगी जी मुख्यमंत्री बन गए हैं.

‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’ वाली कहावत अपने ऊपर चरितार्थ होता देख वे अधिकारी अपने आप को नियति के हाथों सौंप चुके थे, नई पोस्टिंग का अंदाज लगाने लगे थे.

हर गुजरते दिन के साथ धड़कनें बढ़ती जाती थी.

पर योगी जी ने पद संभालते ही अपने एजेंडे के अनुसार धड़ाधड़ आदेश पारित करना शुरू कर दिए… साँस लेने की फुर्सत नहीं थी…. ना ही योगी जी को, ना ही अधिकारियों को.

वे अधिकारी जो अपना सामान पैक कर चुके थे, उन्हें कुछ अटपटा सा लगा. आखिर ये कैसा मुख्यमंत्री है, कि जो काम सबसे पहले करना चाहिये था, वो अब तक नहीं किया?

राज्य के शीर्ष नौकरशाहों में अमूमन डीजीपी (डायरेक्टर जनरल पुलिस) और मुख्य सचिव को माना जाता है.

अखिलेश ने अपने चहेते और मुस्लिम समुदाय से आने वाले आईपीएस जावेद अहमद को डीजीपी बनाया था. उन्हें 15 सीनियर्स को दरकिनार करते हुए इस पद से नवाज़ा गया था.

जावेद साहब के ऊपर ट्रांसफर का खतरा सबसे ज्यादा था… लेकिन होनी को कौन टाल सकता है?

कुछ दिनों पहले योगी जी ने जावेद अहमद को अपने निवास पर आने का फरमान सुनाया… सुबह पाँच बजे का समय मुकर्रर किया गया… जावेद साहब की नींद तो पहले से ही उड़ी हुई थी… पहुँच गए समय से पहले ही.

पूजा पाठ से निवृत्त होकर योगी जी इनसे मिले और बिना किसी लाग लपेट के कहा – “क्या आप वो काम कर सकते हैं जो मैं चाहता हूँ? क्या आप कानून व्यवस्था दुरुस्त बनाए रखने में मेरी मदद कर सकते हैं, यदि मैं आपको फ्री हैंड दे दूँ?”

जावेद साहब हैरान… कुछ कहते उसके पहले ही योगी जी फिर से शुरू हो गए और कहा – “मैं यह नहीं जानता आप कौन हैं, आपका धर्म क्या है? मेरे लिए आप डीजी हैं.. आपको किसी की बात नहीं सुननी है… आप सिर्फ मुझे रिपोर्ट करेंगे… आपको परिणाम दिखाने होंगे… या फिर अगली पोस्टिंग के लिए तैयार रहना होगा.”

जावेद साहब खुश भी थे और हैरान भी… उन्होंने वादा किया और कहा – “मैं आपके हर सपने को पूरा करूँगा अपने पूरे दमखम से.”

जावेद साहब के चेहरे पर सुकून और आत्मविश्वास आ चुका था… योगी के आदेश को बजाने वे फौरन निकल पड़े यह सोचते हुए कि क्या ऐसा भी मुख्यमंत्री हो सकता है?

ठीक ऐसी ही कुछ कहानी अखिलेश के विश्वासपात्र और राज्य के मुख्य सचिव राहुल भटनागर के साथ घटित हुई.

आईएएस राहुल भटनागर को भी बुलाकर उन्होंने यही बात कही… दूसरे अर्थों में यदि कहें तो, my way or highway कह सकते हैं. भटनागर साहब ने भी वही प्रतिबद्धता दिखाई जो जावेद साहब ने दिखाई थी.

तो ये है योगी जी का काम करने का तरीका. उन्होंने दोनों अधिकारियों को अपने मन मुताबिक टीम तैयार करने की छूट दे दी है. राज्य में अब तक एक भी शीर्ष अधिकारी का तबादला नहीं हुआ है.

ये होता है एक ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले प्रशासक का कार्य करने का तरीका. ना जाति का ख्याल, ना मजहब का ख्याल…

वही राज्य, वही अधिकारी, वही पुलिस, वही कानून… पर बदला है तो बस शासक. वो शासक जो अपने राज्य के हितों को सर्वोपरि रखना चाहता है… जनता की सेवा को ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझता है… जाति, धर्म, समुदाय… इन सबसे उपर उठकर.

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