घुटनों पर बाम लगाने से नहीं होता सिरदर्द का इलाज

क्या आप ने Dr Klaus Fuchs या Rosenberg दंपति के बारे में सुना है? वैसे मैंने इन पर एक बार लिखा था एक अलग संदर्भ में, आज संदर्भ जरा सा अलग है.

इन दोनों ने सोवियत रशिया के लिए जासूसी की. डॉ फुक्स एक जर्मन मूल के physicist थे जिन्होंने ब्रिटेन के परमाणु संशोधन विभाग में महत्व का काम किया था. रोजेनबर्ग दंपति अमेरिका के परमाणु प्रकल्प में कार्यरत थे और वहाँ की जानकारी रशिया को दी.

दोनों पर अलग अलग अभियोग चले, फुक्स को ब्रिटेन से देश निकाला दे कर पूर्व जर्मनी भेज दिया गया लेकिन उसके पहले उनको जेल भी काटनी पड़ी.

रोजेनबर्ग दंपति को इलेक्ट्रिक चेयर से मौत मिली. वहाँ भी वामियों ने काफी हल्ला किया था क्योंकि एक स्त्री को भी मौत की सजा दी जा रही थी. लेकिन रात को कोई कोर्ट नहीं खुलवा पाये थे.

बात यह थी कि इन दोनों ने जो जासूसी की थी वह केवल पैसों के लिए नहीं की थी. वे वाकई मानते थे कि एटम बम रशिया के पास भी होना आवश्यक है, यही अमेरिका-ब्रिटेन की ताकत की काट होगी. उनके हिसाब से यह सही काम था और सजा का उन्हें डर नहीं था.

कम्यूनिज़्म का सर्वत्र राज होना चाहिए यह भी उनकी मान्यता थी. उनकी निष्ठा कम्यूनिज़्म के प्रति समर्पित थी, रशिया से नहीं. मॉस्को तो बस उनकी नजर में कम्यूनिज़्म का क़िबला था. उनको बचाने के लिए हो हल्ला अमेरिकन और ब्रिटिश वामियों ने किया, रशिया ने नहीं.

कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान मार कर ही दम लेगा यह तय है, उनके लिए उसे मारना इज्जत का सवाल हो गया है. यहाँ जो बातें हो रही है कि कुछ पाकिस्तानी कैदियों को मार दिया जाये, तो उससे कुछ हासिल नहीं होगा.

पाकिस्तान ने उन्हें कब का कुर्बान मान लिया होगा, उनको जिंदा रखकर हम फंस गए हैं. बिना किसी पब्लिसिटी के ही खत्म कर देते तो सही था. अब पब्लिसिटी उनका सुरक्षा कवच बन गयी है.

वैसे हम डॉ फुक्स और रोजेनबर्ग दंपति की बात कर रहे थे. अपने देश में कई मिल जाएँगे ऐसे. वे पाकिस्तान की मदद कर भी रहे होंगे फिर भी उनकी निष्ठा पाकिस्तान को समर्पित नहीं होंगी.

अगर उन्हें पाकी जासूस कहा जाये तो फुंफकार भी उठेंगे कि हमारी निष्ठा पाकिस्तान से नहीं है, यह जमीन हमारी है. उनकी बात सत्य भी होगी, इसीलिए मैंने डॉ फुक्स और रोजेनबर्ग दंपति का उदाहरण दिया. उनको सभी जगह कम्यूनिज़्म की सत्ता चाहिए थी, सोवियत रशिया की नहीं. इसी तरह इन्हें इस्लाम की सत्ता चाहिए होती है, पाकिस्तान की नहीं.

इस फर्क को हमें समझना होगा और हमारा असली शत्रु कौन है यह सही तरह से परिभाषित करना होगा. हमारा शत्रु एक देश या चंद व्यक्ति नहीं है बल्कि उनको हमसे शत्रुत्व करने को प्रेरित, प्रोत्साहित करती विचारधारा है.

और इस विचारधारा के तहत उन्हें ऐसे शत्रुत्व मोल लेने का incentive भी मिलता है. मारे गए तो जन्नत में इनाम, हम को मार कर जीते तो हमारी जर, जमीन जोरू. ईमान का इनाम, जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी.

शत्रु कोई देश या व्यक्ति नहीं बल्कि उनकी विचारधारा है, उस विचारधारा के तहत ही उनके पूर्वज यहाँ आए, हमारी जमीन को छीना और आज भी उसी गतिविधियों में संलिप्त है. और हम हैं कि फल और शाखाएँ काट रहे हैं, पेड़ की जड़ को देख ही नहीं रहे.

पेड़ की जड़ को न देखने का भी कारण है, हमारे ही बीच से जो विषारक वामपंथी हैं, जड़ को खोजना भी बुरी बात कहते हैं, उसे खोदना तो दूर की बात है. उनकी आवाज में ज़ोर गोश्त-बिरयानी का है यह हमें समझ में नहीं आ रहा.

दु:ख की बात है कि हम इस आक्रमण की व्यापकता को समझ ही नहीं रहे. उनकी विचारधारा total war की है, जिसमें मानसिक, आर्थिक, सब कुछ आता है.

शत्रु को अंदर से खोखला करने के लिए उसकी स्त्रियों पर हमला, इनकी सब से कारगर और पसंदीदा रणनीति है. इस हमले के हथियार अलग होते हैं, इतना ही फर्क होता है.

रणांगण में उनकी सेना हमारी सेना से हारी. अब उनकी लड़ाई हमारी सेना से नहीं, हमारी प्रजा और संस्कृति से जारी है.

उम्मत, बिरादरी आदि शब्द नहीं, शस्त्र हैं, जो तादाद बनाकर ताकत दिखा देते हैं. क्राइम पर एकाधिकार, कई धंधों को हिंदुओं के हाथ से छुड़ाकर उन पर कब्जा करना इसी युद्ध के तहत आता है.

अगर पकड़े जाएं तो वे पाकिस्तान के जासूस नहीं बल्कि हम हिंदुओं के शत्रु हैं यह समझना चाहिए. इलाज और सजा वही होनी चाहिए क्योंकि उनका उद्देश्य एक ही है, इस देश का झण्डा बदलना और हमारी जर, जोरू, जमीन हड़पना जिसे उनकी विचारधारा पुण्यकर्म ठहराती है.

तरबूजा छुरी पे गिरे या छुरी तरबूजे पर, कटता तो तरबूजा ही है, सो मेरे प्यारे तरबूज़ों, सोच लो.

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