साल दो हज़ार पांच में आई फ़िल्म “यहां” का गीत है यह. निहायत “सेंसुअस”, “तल्लीन”, “राग-निमग्न” और उसके बावजूद एक क़िस्म की बेचैनी, दुर्दैव की दुश्चिंताओं से भरा नग़मा. ख़लिश, कशिश और रोमैंटिक सरग़ोशियों में डूबा तराना.
फ़िल्म आई और गई, पता ही न चला. पिक्चर पिटी तो गाने को भी तब वो मुक़ाम हासिल न हो सका, जिसका के वो फ़ौरन से पेशतर हक़दार था. तब भी मुद्दत में, बाद के वक़्तों में, धीरे-धीरे उसकी मक़बूलियत बढ़ी. अवाम के कान पर वो चढ़ा. एक “कल्ट” हैसियत कालांतर में वो हासिल कर चुका है.
परदे पर जिमी शेरगिल और मिनिषा लाम्बा की जोड़ी ने “चाहना”, “आकर्षण” और “प्रणयाकुलता” की जिस शिद्दत के साथ इस गीत को अपनी देह की लय में अंजाम दिया था, वो एक दीगर अफ़साना है, लेकिन शांतनु मोइत्रा जैसे “ब्रिलियंट” म्यूजिशियन की एक निहायत पुरख़लूस धुन के बावजूद यह कहना ग़लत ना होगा, के ये “आउट एंड आउट” गुलज़ार का गीत है. के शायर की राइटिंग्स के जो तमाम मैनरिज़्म हैं, ख़ूसूसियतें हैं, सिफ़त है, और दिल में गुदगुदाहट पैदा करने वाले रोमैंटिक इशारे हैं, उनका यह गीत एक रिप्रेज़ेंटेटिव गुलदस्ता है.
गीत का फ़िल्मांकन बाकमाल. नीली-फ़ीरोज़ी बेठोस रोशनी में हम एक हसीन नौजवान जोड़े को एक-दूसरे से आकर्षित होते, प्यार में पड़ते, प्रणय में गलते, विषाद में सिहरते देख सकते हैं. कश्मीर की पृष्ठभूमि वाले इस गाने की संगीत योजना कुछ ऐसी है कि इसे सुनते वक़्त हमें “कांगड़ी” की आंच का अहसास होता है. बक़ौल शाइर, “ज़रा-ज़रा आग-वाग पास रहती है.”
धीमी बढ़त वाला गाना, सीढ़ीदार-परतदार, ज्यूं सिगड़ी की आंच पर ही सींझता है, देह की, उसकी कल्पनाओं की सर्द लरज़िशों और लज़्ज़तों को सहलाता. एक नीली, ज्यूं नश्शे में डूबी, सर्दीली सिहरन धीमे-धीमे पिघलती है : ज्यूं बर्फ के रेगिस्तान में एक शम्अ कांप रही हो, हांफ रही हो, ढल रही हो, ये इमेजेज़ इस गीत की संगीत-योजना से सीधे-सीधे हमारे ज़ेहन पर किन्हीं आदिम शैलचित्रों की तरह उभर आती हैं.
तिस पर गुलज़ार की ज़ालिम कविता है. “गोरे बदन पर उंगली से नाम लिखने” का ऐंद्रिक इशारा है. “रंगे-हिना” की पहचान है, जिसका कि गहरा नाता आग और लहू से होता है, और आग और लहू रागात्मकता और प्रणय से नालबद्ध हैं. अपने आसपास के मौसम को भरपूर अपनेपन के साथ अपनी कहन में उतार लेने के लिए एक निहायत मुख़्तलिफ़ शाइराना मिजाज़ चाहिए, जिसकी गुलज़ार के पास कोई कमीबेशी नहीं. गुलज़ार की कविता में “परसोनिफ़िकेशन” (मानवीकरण) और चीज़ों की परस्पर “सादृश्यता” की निरंतर आवाजाही है. शायद ही कोई शाइर होगा, जो अपने परिवेश से उनके सरीखी बेतक़ल्लुफ़ी के साथ मुख़ातिब होता हो.
यही वो बेतक़ल्लुफ़ी है, जो गुलज़ार से कहलवाती है कि “कभी-कभी आसपास चांद रहता है, कभी-कभी आसपास शाम रहती है.” गुलज़ार की शाइरी में चांद आपका पड़ोसी है, वह आपके आंगन में खिला दूधमोगरे का सफ़ेद फूल है, और शाम आपके सिर के ऐन ऊपर तना एक दिलक़श शामियाना है, आपसे मुख़्तलिफ़ नहीं, वो आपके निहायत क़रीबतरीन है. जहां “सुबह” की तरह आना और “सबा” की तरह जाना है.
जहां हंसने का मतलब दिन हो जाना है, धूप और रंग के आश्चर्यलोक में बिला जाना है, जहां सूरज को सिरोपे की तरह बालों में खोंस लेना है. ये एक ऐसी आपसदारी का समां है, जो प्रेम की अंतरंग संपृक्ति में घटित होता है. कश्मीर की वादियों में पलने वाली, सिसकने वाली, तड़पती हुई प्रीति और प्रणयाकुलता के “मूड्स” और उसके “वैरिएशंस” को यहां गुलज़ार और शांतनु ने क्या ख़ूब पकड़ा है कि “वल्लाह” कहने को जी करता है. धड़कनों की लय पर इस नग़मे को पिरो लेने को जी चाहता है.
“आओ ना आओ ना जेहलम में बह लेंगे
वादी के मौसम भी इक दिन तो बदलेंगे”.
इक दिन तो. यक़ीनन ही.
ख़ुशआमदीद, प्यार.