सन 1760 में जब लार्ड क्लाइव के हाथ में भारत में जमीन के अधिकार आ गए थे तो धीरे-धीरे भारत के किसानों से जबरन नील की खेती भी करवाई जाने लगी.
उस ज़माने में कोलकाता अंग्रेजों का केंद्र था और बिहार, बंगाल से अलग राज्य भी नहीं था. जिस इलाके में ये नील की खेती सबसे आसानी से हो सकती थी उस इलाके को आज चंपारण कहा जाता है.
अब प्रशासनिक दृष्टि से ये पूर्वी और पश्चिमी चंपारण में विभक्त भी है. नील से किसान को कोई फायदा नहीं होता था इसलिए ज्यादातर किसान नील नहीं उपजाना चाहते थे.
उधर फिरंगियों के लिए इस नील के रंग का बड़ा महत्व था. तो जो सबसे पहले जबरदस्ती शुरू की गई उसे तीनकठिया प्रथा कहा जाता है.
बिहार में जमीन बीघा में नापी जाती है, बीस कट्ठा एक बीघा होता है. हर बीस कट्ठे में, यानि एक बीघे में तीन कट्ठा नील बोना होता था. इस मजबूरी की खेती को तीनकठिया कहा जाता है.
धीरे-धीरे जबरदस्ती बढ़ने लगी “निज” और “रैयत” प्रथाएँ अस्तित्व में आई. ये एक दूसरी किस्म की जबरदस्ती थी, जो अँगरेज़ अपने गुलामों, ध्यान रहे “गुलामों” के जरिये भी करवाते थे.
उस ज़माने में फिरंगी भारत में गुलाम भी खरीद बेच सकते थे. इसलिए ये नामुमकिन नहीं था. ब्रिटेन में “गुलामी” के खिलाफ कानून 1811 में बना था और भारत में वो लोग 1843 तक गुलाम रख सकते थे.
जब ये गुलामी का कानून ख़त्म भी हुआ तो उनके पास एक बहुत सुविधाजनक तरीका और भी था. छोड़े गए गुलाम को कुछ कर्ज दे दो, चक्रवृद्धि ब्याज वो चुका नहीं पायेगा, आजीवन गुलाम बना रहेगा.
ये गुलाम, गुलामी से छूटने के बाद, यादव बने, कुर्मी-कोइरी हुए, दुसाध बने कि राजपूत हुए, ब्राम्हण हुए ये नहीं पता.
ऐसे तरीकों का नतीजा ये हुआ कि सन 1788 में जहाँ ब्रिटेन में आयात होने वाले “नील” का करीब 30% भारत से जाता था, वहीँ 1810 आते आते ब्रिटेन में आयात होने वाला 95% नील भारत से जाता था.
उस समय में फिरंगियों की दूसरी समस्या ये थी कि उनके पास ढेर सारी जेलें तो थी नहीं! तो कर्ज लेकर ना चुकाने वाले किसानों को सजा कैसे दी जाए?
बाँध के भी रखना है, जेल भी नहीं है तो सजा देने के लिए मिशनरियों की देख रेख में एक अनोखी प्रथा शुरू की गई.
इस काम के लिए एक छोटा डंडा लेते थे और थोड़ी सी रस्सी. अब जिसे सजा देनी है, उसके हाथ उसके घुटनों के नीचे से निकाल कर गर्दन तक लाते थे. फिर गर्दन के पीछे डंडा रखकर दोनों कलाइयाँ बाँध दी जाती.
अब इस अवस्था में खड़ा आदमी ना तो किसी तरह रस्सी खोल सकता है, ना डंडा तोड़ सकता है. उसे वैसे ही अजीब सी अवस्था में खड़े रहना होगा.
बाकी नजर रखने के लिए तो मिशनरी महोदय वहीँ थे, वो उसके पाप भी बता रहे होते थे. बंधा आदमी अपने पाप सुन रहा होता.
समझने में दिक्कत हो रही है? अरे बहुत आसान है, स्कूल में मुर्गा बनाया जाना याद है क्या? बस उसमें कान पकड़ने के बदले दोनों कलाइयाँ बांधनी है.
फिरंगियों को उनके रेलवे, टेलीग्राफ जैसे योगदान के लिए धन्यवाद देते समय “मुर्गा बनाने” की सजा के इजाद के लिए भी जरूर धन्यवाद दीजियेगा.
सन 1700 से 2000 तक कई पीढ़ियों ने जिस मुर्गा बनाने की सजा को भुगता है वो भी फिरंगियों और मिशनरियों का ही दिया हुआ है. निकम्मे भारतीय तो कोई ढंग की सजा भी इजाद नहीं कर पाते. काहिल कामचोर कहीं के!