वंदे मातरम नहीं गाएंगे उत्तरप्रदेश के मुस्लिम पार्षद. अब और कितनी स्वतंत्रता चाहिए अल्पसंख्यकों को. शुक्र मनाइए कि आप चीन जैसे देश में नहीं रहते जहाँ पर मौलवियों की परेड करवाई जाती है. आज़ादी में से और कितनी ‘आज़ादी’ आपको चाहिए.
यहाँ आपको पर्सनल लॉ मिला हुआ है, हजारों मस्जिदे हैं इबादत के लिए, आरक्षण भी पाते हैं, आपकी जायज़-नाजायज मांगों का समर्थन करने के लिए कांग्रेस, सपा और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां हैं.
ज़रा पता करें कि दूसरे देशों में आपको इतनी आज़ादी है क्या. जितनी सुविधाएं आपको मिलती है, उतनी तो देश के बहुसंख्यक वर्ग को नसीब नहीं है.
मैंने आज तक किसी हिंदू को तीर्थयात्रा के लिए सब्सिडी मिलती नहीं देखी, हिंदुओं के लिए कोई अलग कानून नहीं है.
सारे अधिकार मिलने के बाद भी वंदे मातरम् नहीं गाएंगे, तीन तलाक खत्म नहीं होने देंगे, समान नागरिक संहिता का विरोध करेंगे.
ये सब 60 साल खूब चला लेकिन अब नहीं. आपकी कट्टरता का नकाब खुद ही तार-तार हुआ जा रहा है. इसका प्रमाण है कि आज तीन तलाक जैसे मुद्दे पर लड़ाई अब घर से बाहर आ गई है.
आज से दस साल पहले कौन सोच सकता था कि न्यूज़ चैनलों पर अल्पसंख्यक समुदाय की कुरितियों पर इस कदर खुलकर बहस की जाएगी.
अपनी कट्टरता के शर्बत में पानी डालकर उसे हल्का कीजिए जनाब, ये मध्ययुग नहीं है. ये तेज़ी से आगे बढ़ता हिंदुस्तान है.
ज़रा मेरठ के उस पार्षद के शब्दों पर गौर करें. ‘हम एक बार हिंदुस्तान ज़िन्दाबाद कह सकते हैं लेकिन वंदे मातरम् नहीं कहेंगे’.
जनाब कह रहे हैं ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद कह सकते हैं’. देश को जिंदाबाद कह सकते हैं यदि आपने जोर डाला तो, हमारी खुद की कोई भावना नहीं है.
अब सुप्रीम कोर्ट के महान ज्ञान पर भी प्रकाश डालना जरुरी है. कोर्ट कहता है वंदे मातरम् गाना अनिवार्य नहीं है.
कोर्ट का ज्ञानवर्धन करते हुए बताना चाहूंगा कि आजादी के बाद डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने स्पष्ट कर दिया था कि वंदे मातरम् को वही सम्मान दिया जाए जो राष्ट्रीय गान को दिया जाता है.
ये बड़े दुःख की बात है कि अक्सर टॉकीज़ में राष्ट्रगान के समय खड़े न होने वाले वही लोग होते हैं जो वंदे मातरम् गाने का विरोध करते हैं. और जब इनका विरोध करे तो हमें देशभक्ति का ठेकेदार कहा जाता है.
कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाना और उनका समर्थन करना इस देश में अभिव्यक्ति है और वंदे मातरम् गाने के लिए कहना धर्म में दखलअंदाज़ी है.