इस्लामिक कानून यानि शरिया की चार (सुन्नी) धाराओं में से एक है, हनाफ़ी इस्लाम. काफी पहले ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में तुर्की के शासकों ने इसे अपना लिया था.
बाद के ओट्टोमन सल्तनत ने भी हनाफ़ी इस्लाम को प्रश्रय दिया, इसलिए ये काफी तेजी से फला-फूला. आज दुनिया के करीब एक तिहाई मुसलमान हनाफ़ी इस्लाम के हिसाब से ही शरिया कानून को मानते हैं.
अक्सर जो हदीस के नाम में “सही बुख़ारी” और “सही मुस्लिम” लिखा दिखता है वो हनाफ़ियों की छह महत्वपूर्ण हदीसों में सबसे ख़ास मानी जाती हैं.
भारत में इनका प्रभाव इसलिए है क्योंकि ज्यादातर मुग़ल हनाफ़ी थे. वो हनाफ़ियों के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले अबू हनीफ़ा और उनके शिष्यों की किताबों “किताब अल खराज़” और “किताब अल सियार” के हिसाब से ही मुशरिकों, काफ़िरों और धिम्मियों के साथ सुलूक करते थे.
जज़िया जैसे धिम्मियों के लिए बनाये टैक्स भी उसी हिसाब से थे. मुगलों द्वारा शिया मजहबी आलिमों को क़त्ल करवाए जाने की भी यही वजह थी.
सुन्नियों द्वारा शिया मुस्लिमों की पूरी पूरी आबादी को इस तरह साफ़ करने की दस घटनाओं को तराज़ ए शिया बुलाया जाता है.
इन्हीं दस तराज़ (1548, 1585, 1635, 1686, 1719, 1741, 1762, 1801, 1830, 1872) की वजह से शिया मुस्लिम तकिया यानि सच लगने वाले झूठ बोलने का तरीका इस्तेमाल करते हैं.
आम तौर पर जो सभी मुसलमानों के एक होने की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, या चुनावों में एकजुट मतदान की बात करते हैं, वो सुन्नी मुसलमान होते हैं.
असल में मुसलमानों का एकमुश्त मतदान, बेहतर मोलभाव के लिए गढ़ा गया एक झूठ है. काफी पहले से ही ये अलग अलग होते हैं, और अलग हितों के लिए काम करते हैं.
मुगलों का ये शिया समुदाय से नफ़रत आम तौर पर भारतीय इतिहास में पढ़ाया नहीं जाता, लेकिन मामूली सी नजर भी डालें तो मुगलों का हनिफ़ी होना दिख जाता है. अगर मुगले आज़म फिल्म भी याद हो तो अकबर का दरगाह पर जीत के लिए दुआ मांगने जाना याद होगा.
अब आ जाइए आज के दौर में. अजमेर का ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती दरगाह आज भी कोई अज्ञात जगह नहीं है. हाल के “जोधा-अकबर” फिल्म का “ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा” वाला गाना उसी के लिए फिल्माया गया है. वहां चादर चढ़ाने अक्सर सेक्युलर, धर्म-निरपेक्ष भाव रखने वाले हिन्दुओं को भी जाते देखा ही होगा.
हाल में ढाई लाख की चादर वहां रवाना करते परधान जी भी दिखे थे. कृपया ढाई लाख में कई गरीबों को कम्बल जैसी गैर मजहबी सोच बीच में ना लायें. पैसे की बर्बादी और गरीबों का हक़ सिर्फ शिवलिंग पर पंद्रह रुपये का दूध चढ़ाने में जाता है, मजार की चादर में बर्बादी नहीं होती.
हाँ, तो वापिस मुद्दे पर आते हुए अभी के दौर के चिश्ती के दरगाह के सजदानशीं हैं सैयद ज़ैनुल आबेदीन अली खान. वो सूफी ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के बाईसवीं पीढ़ी के हैं.
करीब 75 साल के सैयद ज़ैनुल आबेदीन अली खान अभी हाल में इसलिए विवादों में आये क्योंकि उन्होंने तीन तलाक को गैरइस्लामिक करार दे दिया. वो यहीं नहीं रुके, एक कदम और आगे बढ़कर उन्होंने मुसलामानों से गौमांस खाना बंद करने की वकालत भी कर डाली.
उनके औरंगजेब टाइप भाई ने फ़ौरन से पेश्तर कदम उठाते हुए आबेदीन को “मुर्तद” घोषित करवा डाला. मुर्तद वो मुसलमान होता है जिसने इस्लाम की राह छोड़ दी हो.
अब चूँकि आबेदीन मुसलमान ही नहीं तो उनके दरगाह के प्रमुख यानि सजदानशीं होने का कोई मतलब नहीं होता, ये कहकर 65 साल के सैयद अलाउद्दीन अलिमी खुद सजदानशीं होना चाहते हैं.
उधर आबेदीन ने हनिफ़ी फिरके से लाये गए इस मुर्तद हो जाने के फतवे को ही कट्टरपंथियों की साजिश करार दिया है. आबेदीन अभी भी अपनी तीन तलाक के गैर इस्लामिक और गौहत्या बंदी की बात पर अड़े हैं.
आबेदीन को अच्छी तरह पता है कि उनका सजदानशीं का पद पहले ही 1987 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से है ना कि किसी अरबी झुण्ड के हुक्म से. तो ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के अधिकार अभी भी आबेदीन के पास ही हैं.
चादर तो चढ़ाते ही हैं, धर्मनिरपेक्ष हैं, इसलिए आपको इस हनिफ़ी के मुग़ल और मुग़ल के ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती सम्बन्ध को भी जानना चाहिए. बाकी सेकुलरिज्म के कुली तो ओवैसी साहब भी नहीं हैं, ये याद ही होगा, क्यों?