एक क्रांतिकारी, अद्भुत, जैसा कभी ना लिखा गया हो ऐसा उपन्यास रचने का सपना अर्जुन को चेतना के उस तल तक ले जा रहा था, जहां की एक झलक मात्र उसके हाथ से कलम छुड़ा देती थी… उसने जाना था कि यदि वह सबसे गहरे तल पर जाकर कुछ लिखने का प्रयास करेगा तो कभी नहीं लिख पाएगा. वहां शब्दों की तो दूर कल्पनाओं की कल्पना करना भी असंभव है. उस गहनतम तल में सिर्फ शून्य है. वहां जाकर लिखना तो दूर यदि कुछ नैनो सेकंड्स से ज्यादा रुक भी गया तो वहां से लौटना भी उसके लिए असंभव हो जाएगा.
अर्जुन अचानक आँखें खोलता है सीने पर पड़े अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीप को बंद करके सिरहाने की उसी टेबल पर रख देता है जहां पर बाकी सब अधूरी पढ़ी हुईं किताबें रखी रहती है. उठकर बाथरूम में जाता है, वाशबेसिन का नल खोलकर पानी के छींटे अपनी आँखों पर मारता है फिर चेहरा उठाकर जब आईने में देखता है तो उसे अपनी एक आँख में अजीब सी गहराई दिखाई देती है तो दूसरी में बहुत ही उथलापन. एक पैर गहरे तल में जम चुका था और दूसरा पैर जीवन की उथली लहरों में टिक नहीं पा रहा था… इन दो जगहों का सामंजस्य बनाकर उसे कलम की दुनिया में जादू जगाना है.
अर्जुन किसी भी युग में जन्म ले ले क्या बिना कृष्ण के उसके अन्दर का द्वंद्व ख़त्म न होगा?? खुद से ये सवाल करता हुआ अर्जुन कपड़े ठीक ठाक कर घर से निकल पड़ता है. नहीं जानता की कृष्ण की तलाश का बीज उसके मन में पड़ गया है या कृष्ण का जो बीज पहले से पड़ा हुआ था उसने उसे उखाड़ने की चेष्टा की है.
घर की सीढ़ियाँ उतरने के साथ ही वह घर के सामने बने कॉफ़ी हाउस की तरफ़ तेज़ तेज़ कदमों से बढ़ने लगता है. मानो वो तेज़ चलेगा तो उसका द्वंद्व पीछे रह जाएगा. वह जानता है उसके द्वंद्व की गति अभी कम है, वो उस तक पहुंचे तब तक वह कॉफ़ी ख़त्म करके वहां से निकल चुका होगा.
ये सोचते हुए वह कॉफ़ी हाउस के दरवाज़े पर खडा हो जाता है जिस पर लिखा था, PUSH, उसे लगा जैसे ये कॉफ़ी हाउस कह रहा हो आप आपने आप को अन्दर तो धकेलिए फिर बाहर निकलते समय खुद ही पता चल जाएगा की आप अन्दर से बाहर आने के लिए खुद को कितना PULL कर रहे हैं.
वह दरवाज़े को हल्का सा धक्का देकर अन्दर आ जाता है, कॉफ़ी हाउस की भीड़ चहलकदमी देख और आवाजें सुन खुद पर ही झुंझला जाता है, ‘तुमको भी यही कॉफ़ी हाउस मिला था, सोचा था कुछ देर किसी टेबल पर अकेला बैठकर कॉफ़ी की चुस्कियों का मज़ा लूंगा, लेकिन यहाँ तो एक भी टेबल खाली दिखाई नहीं दे रहा. ऊपर से ये अंग्रेजों के दिए हुए नए नए तरीके Self Service. हाँ भई, सच भी है आजकल किसे फुर्सत है की दूसरों की सेवा करें.
ये सोचते हुए वो काउंटर पर पहुँचता है. एक कॉफ़ी का आर्डर देकर चारों और नज़रें दौड़ाता है. एक कोने में बड़ी सी टेबल दिखाई देती है जहां पर पांच कुर्सियां लगी है. लेकिन वहां पर एक कपल बैठा है. ‘क्या उनको डिस्टर्ब करना ठीक रहेगा?’ उनकी और बढ़ते हुए अर्जुन सोचता है लेकिन ये वाले कपल ‘वैसे वाले’ कपल नहीं लग रहे. दोस्त होंगे, मेरे बैठने से डिस्टर्ब नहीं होंगे. वैसे भी यदि वैसे वाले कपल हुए तब भी उनको कौन सा फर्क पड़ेगा, यह सोचते हुए वह कॉफ़ी का प्याला लेकर उस टेबले की एक कुर्सी थोड़ी पीछे खींचकर बैठ जाता है.
दूर से तो वे दोनों बात करते हुए दिखाई दे रहे थे लेकिन अभी तो दोनों चुप बैठे हैं. कहीं मेरे आने से…… अर्जुन सोच ही रहा था की उसके कानों में लड़के की आवाज़ आई “पीटर चेनी के लायक तो कदापि नहीं, पर फिर किसके? हार्डी के? हाँ, ऐसी कठपुतली पाकर भाग्य भी अपना भाग्य सराहेगा. पर रेखा उतनी भोली नहीं है, उसमें एक बुनियादी दृढ़ता है जो ….
दोस्तोएव्स्की? लेकिन क्या उसकी चेतना वैसी विभाजित है- क्या उसमें वह अतिमानवीय तर्क-संगती है जो वास्तव में पागलपन का ही एक रूप है? प्राचीन ग्रीक ट्रेजेडीकार-एक बनाम समूचा देव वर्ग ….. लेकिन रेखा में उतना अहम् क्या है कि देवता उसे चुनें- कि वो चुनी जाकर कष्ट पाए, तब सार्त्र- क्षण की असीमतता, यातना के क्षण की असीमताता नि:संदेह असीम सहिष्णुता उसमें है- व्यथा पाने की असीम अंत:सामर्थ्य, लेकिन वह इसीलिए कि आनंद की असीम क्षमता उसमें है…..
आनंद की परा सीमा, यातना की परा सीमा – चुन सकते हैं उसे देवता, क्योंकि परा सीमाएं उसमें सोते हैं, नभाकांक्षी मानव, मृत्कामी देवता- ट्रेजेडी के सहजयान-इकेरस के पंख, प्रोमाथ्यु की आग…. ग्रीक ट्रेजेडी केवल अहम की ट्रेजेडी तो नहीं है, वह मानव की संभावनाओं की ट्रेजेडी है….”1
अर्जुन लड़के की बात सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया. उसने उसे देखने के लिए नज़रें उठाई तो चकित रह गया, लड़का तो कुछ नहीं बोल रहा था, उसके होंठों पर तो कॉफ़ी का प्याला है. वह इतना देख ही पाया था कि लड़के ने कॉफ़ी का प्याला नीचे रखते हुए कहा- “रेखा जी, चेनी का या किसी भी लेखक का पात्र होना क्यों चाहा जाए, हर किसी का नवजीवन अद्वितीय होता है”
“सो तो है”, लड़की ने आँखों में चमक भरते हुए कहा, “हम कदम कदम पर अपनी अनुभूतियों की तुलना साहित्य के पात्रों से करते चलते हैं, पर हैं वे अद्वितीय और अद्वितीयता में ही वो हमारे निकट मूल्यवान है. नहीं तो आदमी ऐसा अभागा भी हो जा सकता है कि किताबी पात्रों का जीवन ही जीए, उन्हीं की अनुभूतियाँ भीगे, ऐसे छायाजीवी भी होते हैं.”2
अर्जुन घबड़ा गया, उसे लगा जैसे वो दोनों उसे जानते हैं. जानते ही नहीं बल्कि उन्हें पता भी चल गया है कि वह उपन्यासों के पात्रों पर अध्ययन कर रहा है. ताकि अपने उपन्यास के लिए सबसे भिन्न और अद्भुत पात्र की रचना कर सके. उसने फ़टाफ़ट अपनी कॉफ़ी ख़त्म की और वहां से उठ खडा हुआ. बाहर निकलने के लिए जैसे ही वह दरवाजें पर पहुंचा वहां लिखा था PULL.
उसे लगा जैसे पीछे से किसी ने उसकी कमीज़ खींचीं, ‘क्यों भई, क्या हुआ, हमें नहीं पहचानते?’ पीछे मुड़कर देखा तो लोगों की भीड़ उसके पीछे खड़ी थी. और सबके हाथों में एक एक तख्ती थी, किसी पर लिखा था सार्त्र, किसी पर पीटर चेनी, किसी पर हार्डी… और भी कई लोग थे जिनके नाम का उच्चारण उससे नहीं बन रहा था.
सब लोग उसकी तरफ व्यंग्य की दृष्टी से देख रहे थे. उसने घबराकर दरवाज़ा खोलना चाहा, उसे अनुभव हुआ कि दरवाज़े को धकेलने में उतनी ताकत नहीं लगी थी जितनी उसे खींचने में लग रही थी. फिर भी अपनी पूरी ताकत लगाकर अर्जुन ने दरवाज़ा खोला और खुद को बाहर धकेला.
वो पूरी तरह पसीने में तर ब तर हो रहा था और मन ही मन बुदबुदा रहा था- ‘लो अब सार्त्र, पीटर चेनी और वो ग्रीक ट्रेजेडीकार…. हे प्रभु ये उपन्यासकारों के पात्रों ने कितना कुछ पढ़ा होता है, कितने इंटेलिजेंट होते हैं ये सब. कैसे मैं अपने पात्र को इन सबसे अलग और ऊपर रख पाऊंगा? मेरे पात्र को तो कुछ भी नहीं आता.
ये सोचता हुआ वो घर की सीढियां चढ़ जाता है और दरवाज़ा खोलता है तो देखता है ‘वह’ उसकी टेबल पर चढ़कर बैठा है और उसके उपन्यास के पन्नों को उलट-पलट कर देख रहा है. अर्जुन झुंझलाकर टेबल के पास पहुंचता है तो वह चुपचाप अपने हाथ में रखी चंदामामा पढ़ने लगता है.
हे प्रभु, ये अभी तक चंदामामा पर अटका हुआ है. ऐसे तो इसे कई बरस लग जाएंगे सार्त्र, नीत्शे, दोस्तोएव्स्की और क्या नाम था उसका…. हाँ पीटर चेनी तक पहुँचते-पहुँचते.
(1,2 अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीप के अंश)
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एक अधूरा उपन्यास-2 : गुनाहों का देवता है हर पात्र