1939 से 1945 तक चलने वाले द्वितीय विश्व युद्ध में करीब पांच करोड़ लोग मारे गए. जिसमे पूरी दुनिया प्रभावित हुए थी. इस पर अनगिनत उपन्यास व आत्मकथा लिखी गयी, अनेक किताबे छपीं और ना जाने कितनी फिल्मे कितने सालो तक बनती रहीं.
इस पर विस्तार में लिखा गया एक पूरा लिखित इतिहास है. जो जब तक मानव समाज है तब तक एक दस्तावेज के रूप में उपस्थित रहेगा. जिस पर विश्वविद्यालयों में आज भी अध्धयन-अध्यापन होता रहता हैं और आगे भी होता रहेगा. जो हमें इस बारे में याद दिलाता रहेगा.
इसने विश्व को एक नया खलनायक दिया हिटलर. जिसे आज भी विश्व का बच्चा-बच्चा जानता है और आने वाली पीढ़ियां जानती रहेंगी. इसका फायदा क्या हुआ, ये अगर संक्षिप्त में कहना पड़े तो कहूंगा कि यहूदियों के आधुनिक राष्ट्र इज़राइल की स्थापना 1948 में हुई और विश्व समाज युद्ध से बचने के प्रयास में जुटा. आदि आदि.
जबकि विश्वयुद्ध के ठीक बाद 1947 में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन में कहा जाता है कि करीब-करीब बीस से तीस लाख लोग मारे गए और करीब डेढ़ करोड़ शरणार्थी बने. अर्थात एक अकेले उपमहाद्वीप में इतनी बड़ी मानव संख्या प्रभावित हुई. वो भी बिना युद्ध के.
कितने उपन्यास लिखे गए? उंगली पर गिने जा सकते हैं. कितनी फिल्मे बनी? ना के बराबर. क्या किसी विश्वविद्यालय में इस पर बात होती है? मुझे नहीं लगता, बल्कि यह अब स्कूल के किसी किताब के किसी पन्ने में सिमट कर रह गई है. वो भी खानापूर्ति के लिए.
आम जीवन में भी हम तकरीबन इसे भुला चुके हैं जबकि यह दुनिया का सबसे बड़ा मानव विस्थापन था. क्या हम बंटवारे के दर्द को आज महसूस कर सकते हैं? नहीं.
अपने घर-परिवार का अचानक उजड़ जाना और रातों-रात सड़क पर आ जाना क्या होता है यह सिर्फ और सिर्फ वही जान सकता है जिसने इसे भोगा है. वो पूरी पीढ़ी खत्म होने के कगार पर है. मगर हमने उनके अनुभव को कभी कही संभल कर रखने की जरूरत भी महसूस नहीं की. क्यों?
ठीक है कि जीवन को आगे बढ़ने के लिए पुराना भूल जाना चाहिए लेकिन याद रखने के फायदे भी कम नहीं. कम से कम भविष्य में यह ना हो इसका सबक तो इससे कहीं ना कहीं मिल ही जाता है.
दुर्भाग्यवश हमारी अगली पीढ़ी तो इन सब से पूरी तरह अनजान है. उसे विश्व युद्ध का दर्द तो पता होगा मगर अपनों का नहीं. वो हिटलर को जानती है मगर हिन्दुस्तान के उन चेहरों से वो अनजान है जिनके कारण भारत के इतिहास का ये काला पन्ना जुड़ा.
इसका ही दुष्परिणाम हुआ कि मात्र चार दशक के बाद कश्मीर से एक और विस्थापन हुआ. जब 1990 में करीब दो लाख कश्मीरी पंडित अपने ही घरों से बेघर कर दिए गए. इस पर कितनी पिक्चर बनी? कितने उपन्यास लिखे गए? कितनी आत्मकथाएं प्रकाशित हुई? उंगली पर गिनने लायक भी नहीं.
और जो यह थोड़ा बहुत अभी इसको लेकर शोर होता भी है वो भी अगली पीढ़ी तक अप्रासंगिक हो जाएगा. 1947 से लेकर 1990 के इस इतिहास की अधिक चर्चा ना करके कुछ एक राजनीतिक परिवार विशेष को जरूर कुछ तत्कालीन फायदा हुआ मगर देश एक बार फिर चूक गया.
हमारा तत्कालीन तथाकथित बौद्धिक वर्ग भी अपनी विचारधारा में अंध रूप से बंध कर यह नहीं समझ पाया कि वो आमजन का कितना अहित कर रहा है और इसके कितने दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं.
सच कहें तो हिन्दुस्तान में यह सिर्फ इस शताब्दी की घटना नहीं है. यह सिलसिला हमारे उपमहाद्वीप में पिछली कई शताब्दियों से चला आ रहा है. तैमूर से लेकर खिलजी, फिर मुगल और फिर अंग्रेज. हमारे साथ क्या क्या होता रहा, क्या हम कभी जान पाए? नहीं.
यह सच है कि उस समय हम गुलाम हो गए थे इस लिए हमारे द्वारा सही इतिहास का लेखन सम्भव नहीं था. मगर यह मौका हम आजाद हिन्दुस्तान में भी चूक गए, इसके लिए भविष्य हमें कभी माफ़ नहीं करेगा.
क्योंकि जिस तरह हम हजार साल के इतिहास को सही-सही आज नहीं जान पाते, ठीक इसी तरह आने वाली पीढ़िया 1947 (और शायद 1990 को भी, अगर हम इसे भी व्यवस्थित रूप से नहीं लिखते) के सच को भी नहीं जान पाएंगी.
और इस चक्कर में हिन्दुस्तान के भविष्य में एक और नई तारीख होगी. क्योंकि जब तक हमें अपने इतिहास को संभालना नहीं आएगा तब तक इतिहास अपने आप को दोहराता रहेगा. क्या करें, लिखित-सही-इतिहास के ना होने से हम उससे सबक ले ही नहीं पाते.