मुल्ला नसीरुद्दीन एक बार गधे पर बैठे जंगल से गुजर रहे थे कि अचानक डाकुओं ने उन्हें घेर लिया. अब मुल्ला के पास पैसे-वैसे तो ज्यादा थे नहीं, गुस्से में डाकुओं ने जमकर उनकी धुलाई की और जो दो चार पैसे थे, सब छीन लिया.
रोते धोते मुल्ला नसीरुद्दीन जब शहर तक पहुंचे तो लोग उन्हें देख कर बड़े हैरान हुए. सबने पूछा माजरा क्या है? डकैतों की बात पता चलने पर लोगों ने गौर से मुल्ला को देखा.
उनके एक हाथ में भाला था, एक में तलवार और पीठ पर ढाल बंधी थी. लोगों ने पुछा मुल्ला आपने डकैतों का मुकाबला क्यों ना किया? भाग ही लेते, पिटते क्यों रहे?
तो हाथ सामने करके मुल्ला बोले, अमां अजीब अहमक हो मियां! देख तो रहे हो एक हाथ में भाला, एक में तलवार थी, ऊपर से पीठ पर ये भारी भरकम ढाल बंधी है. हाथ खाली होते तब तो मुकाबला करता, या बोझ कम होता तो भागता!
आम हिन्दुओं की हालत कुछ कुछ मुल्ला नसीरुद्दीन जैसी ही है. हर थोड़े दिन में वही वाकये दोहराए जाते हैं और वही छाती पीट कुहर्रम विलाप हिन्दुओं का भी शुरू हो जाता है.
इन्टरनेट पर ख़बरें रोज़ आती हैं. बड़े प्रकाशनों में छपे लेखों के स्क्रीन शॉट, उनके लिंक आसानी से एक गूगल स्प्रेडशीट में जमा भी किये जा सकते हैं. लेकिन साल भर हर रोज़ ऐसी ख़बरों, ऐसे लेखों को गूगल कर कर के उन्हें सहेजना पड़ेगा. इतनी मेहनत का काम बेचारे हिन्दुत्ववादी कैसे करेंगे?
फेसबुक भी एल्बम बनाने का विकल्प देता है. एक पब्लिक एल्बम के बदले ओनली मी की सेटिंग वाला एल्बम बना के भी रख सकते हैं. हर रोज़ घर में ही आने वाले, या अड़ोस-पड़ोस, किसी चाय-पान की दुकान में हाथ आये अखबार में आपके विषय का लेख भी मिल जायेगा.
अखबार को किसी सीधी जगह रख के उसकी एक ढंग की फोटो, जेब में पड़े स्मार्ट-फ़ोन से खीच के सहेज लीजिये. फोटो के साथ तारीख, विषय, कहाँ से लिया, लिखने का विकल्प भी होता है, वो भी जोड़ सकते हैं. साल भर में एल्बम में काफी मसाला इकठ्ठा होगा, अब ओनली मी को पब्लिक कर दीजिये.
अगर लगता हो कि ये मामूली काम खुद कर डालने का सामर्थ्य नहीं है, अपनी व्यस्त दिनचर्या में से इतना समय नहीं निकाल पा रहे तो भी कोई मुश्किल नहीं.
सोशल मीडिया पर ही अपने राज्य के, आस पास के, किसी ढंग के लिखने वाले को ढूंढ निकालिए. उस से कहिये कि पांच, सिर्फ 5, अपने समर्थन के लेख लिखवाने हैं.
आपके पास 5-10 हज़ार जैसी बड़ी रकम, या नौकरी तो नहीं है लेकिन 500 रुपये की किताबें आप उन्हें भिजवा सकते हैं. दक्षिणपंथी लोभी भी नहीं होता, पूरी संभावना है कि इतने पर भी आपका काम कर देगा.
लेकिन क्या करें एक तो इन्टरनेट चलाना नहीं आता, ऊपर से अपनी जेब से पैसे खर्च हो जाएँ ऐसा भी तो नहीं चाहिए ना! बेचारे हिन्दुओं के दोनों हाथ बंधे हैं. पीठ पर दिनचर्या और परिवार का बोझ भी है, भाई वो भाग भी नहीं सकता.
पिट-पिटा के ऐसे ही तो आना पड़ेगा. दोनों हाथ व्यस्त हैं, मुकाबले की कोशिश मत करना. और हाँ, पीठ पर वजन भी है, भाग भी नहीं पाएंगे. तो पिटते रहिये.
अगली बार फिर ऐसे ही पिट-पिटा के वापिस आना, हम फिर एक-दूसरे से सहानुभूति जताएंगे. एक-दूसरे के जख्म चाटेंगे-सहलायेंगे. वाह भाई हिन्दुओं वाह, बहुत अच्छा पिटे इस बार!