कहते हैं हमारी जीवन यात्रा के साथ साथ हमारी आध्यात्मिक यात्रा को नेपथ्य से कुछ लोग संचालित कर रहे होते हैं, जो उचित समय से पहले हमारे सामने अपनी उपस्थिति का कोई संकेत नहीं देते, ये उचित समय भी वही तय करते हैं और हमारी यात्राएं भी.
ऐसे में ब्रह्माण्ड के स्वर्णिम नियमों को सुचारू रूप से चलाने के लिए नियुक्त उच्च चेतनाओं को दो चेतनाओं के मिलन की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी, जिनके मिलने के बाद न सिर्फ उनकी आध्यात्मिक यात्राओं को उच्चतर आयामों तक ले जाने की तैयारी शामिल थी, साथ ही उनके मिलने के बाद ब्रह्माण्ड के उन्हीं स्वर्णिम नियमों की ज्योत को उचित पात्रों तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा जाना था.
और यह योजनाएं हर जीवित मनुष्य के साथ जुडी हैं, बस उसे देख पाने की पात्रता अर्जित करते ही ब्रह्माण्ड के रहस्य खुलने लगते हैं. इसलिए इसे मेरी व्यक्तिगत यात्रा के साथ जोड़कर मुझे अहम् के टीले पर बैठाने की आवश्यकता नहीं है, बस अंतर इतना है मैं कठिन तपस्या और कड़ी मेहनत के बाद साक्षी भाव से देख पाने का जो थोड़ा सा भी सामर्थ्य जुटा पाई हूँ. उसी थोड़े से सामर्थ्य पर आस्था रख जो कुछ भी जान पाई हूँ उसको आप सब तक पहुंचाने की बड़ी ज़िम्मेदारी मैंने अपने नाज़ुक कन्धों पर उठाने का दुस्साहस किया है.
हाँ कुछ लोग जिनकी यात्रा का रास्ता थोड़ा और लंबा है वो इस पर व्यंग्य कसकर निकल जाने को स्वतन्त्र हैं, कुछ होंगे जिनमें कुछ जिज्ञासा का बीज अंकुरित होगा, और उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो उस खोज के रास्ते पर चल निकले हैं जहाँ मेरी ये बातें उनकी अंधेरी राह में उम्मीद का कोई छोटा सा दीपक बन राह को थोड़ा सा और रोशन कर जाएगा.
तो मुद्दा यह है कि मैं जीवन में कभी कोई तीर्थस्थल नहीं गयी, कभी ऐसी आकांक्षा भी नहीं जागी, ना ही ऐसा कोई भक्तिभाव जागा. देखने वालों ने सीधे सीधे नास्तिक करार दिया.
जो दिखाई नहीं दिया लोगों को और कदाचित मुझे भी, वो था पुत्र “आस्तिक” की संभावना का बीज. पुत्र किसका यह आगे उजागर करूंगी.
तो 11 दिसंबर 2008 (ओशो जन्मदिवस पर) स्वामी ध्यान विनय से मिलन से पहले मुझे भेजा गया सबसे पहली तीर्थयात्रा पर… मई 2008 में गयी थी वैष्णो देवी. साथ ही हरिद्वार में गंगा माँ के पवित्र जल को छूकर आशीर्वाद लिया था… लेकिन उस यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था हरिद्वार में मनसा देवी के दर्शन….
उस छोटी सी पहाड़ी पर मंदिर में पहला कदम रखते से ही लगा था जैसे बहुत गहरा रिश्ता है माँ मनसा से. वहां लोग मन्नतों वाला सूत्र बाँध रहे थे, कुछ लोग बिंदियाँ चिपका रहे थे… मैंने वहां से एक छोटी सी बिंदी निकालकर अपने माथे पर लगा ली थी…
उस समय तो मैं नहीं जानती थी क्यों लेकिन वैष्णो देवी के दर्शन से अधिक मन को शांति मुझे मनसा देवी के मंदिर में मिली थी. आज उस घटना को दोबारा देखती हूँ लगता है जो लोग भी मेरी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए नेपथ्य में काम कर रहे हैं, ये उनकी योजना के अंतर्गत ही था.
लगा जैसे स्वामी ध्यान विनय के जीवन में प्रवेश से पहले नए जीवन के प्रारम्भ के लिए माँ मनसा का आशीर्वाद आवश्यक था. तो मई 2008 में मनसा देवी के दर्शन कर वापस इंदौर लौटी थी और जून 2008 में स्वामी ध्यान विनय का पहला ईमेल मेरे जीवन के द्वार पर दस्तक देता हुआ पहुंचा था.
उसके बाद इन आठ सालों में हमने मिलकर जो भी यात्रा तय की इस बीच हमने “आस्तिक” को पुत्र रूप में पाया. और स्वामी ध्यान विनय उस पुत्र की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप निकल पड़े हैं आगे की यात्रा पर…
पहले मनसा देवी के बारे में संक्षिप्त परिचय दे दूं –
मनसा देवी, यानी भगवान शिव की मानस पुत्री. कहते हैं मनसा देवी का प्रादुर्भाव शिव के मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा. इनके पति का नाम जगत्कारु और पुत्र का नाम “आस्तिक” है.
सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे आज पता चली कि मनसा देवी को नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है, ग्रंथों में लिखा है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव ने उन्हें इसी कन्या को भेंट स्वरूप दिया लेकिन वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया. इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल ने प्राण त्यागा. यह मान्यता भी प्रचलित है कि मनसा देवी ने ही शिव को हलाहल विष के पान के बाद बचाया था.
कहते हैं इनके सात नामों के जाप से सर्प का भय नहीं रहता. ये नाम इस प्रकार है जरत्कारू, जगतगौरी, मनसा, सियोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जगतकारुप्रिया, आस्तिकमाता और विषहरी.
मनसा देवी मुख्यत: सर्पों से आच्छादित कमल पर विराजित हैं 7 नाग उनके रक्षण में सदैव विद्यमान हैं. कई बार देवी के चित्रों तथा भित्ति चित्रों में उन्हें एक बालक के साथ दिखाया गया है जिसे वे गोद में लिये हैं, वह बालक देवी का पुत्र आस्तिक है.
तो मुझे हृदय से माँ पुकारने वाली उन कन्याओं को मैं बस इतना ही कहूंगी, मेरी बच्चियों हम शिव की मानस पुत्री मनसा की ही मानस पुत्रियाँ हैं. हरी के द्वार पर बैठी माँ मनसा ने अपनी गोद में विराजित पुत्र “आस्तिक” के पालन की ज़िम्मेदारी के लिए हमें चुना है.
हमें पुत्र आस्तिक के पालन और रक्षा के लिए अपनी ममता का फूल खिलाए रखना है… ताकि इस जगत में नास्तिकता के कांटे से घायल लोगों को उस फूल की सुगंध का रास्ता दे सके.
इसलिए मेरी बच्चियों! डरो नहीं मनसा देवी ही की तरह हम भी सर्पों से आच्छादित कमल पर विराजित हैं और 7 नाग हमारे रक्षण में सदैव विद्यमान हैं. ये वही लोग हैं जो नेपथ्य से हमारी यात्रा संचालित किये हुए हैं. उन पर आस्था रखो और आगे बढ़ो, प्रकृति को हम माँ कहते हैं तो उनकी ममता हमीं से हैं.