माने तीन तलाक वाले मामले पर बहस के दौरान एक टोपी और दाढ़ी वाले बुद्धिजीवी ने फरमाया कि “यह हमारा धार्मिक मसला है. इसपर किसी को भी कुछ कहने की इजाजत नहीं दी जा सकती. पर्सनल लॉ के अनुसार इसे हम शरीयत के आधार पर ही लागू रखेंगे.
कम से कम कोई हिंदू इस पर अपनी राय ना दे तो बेहतर है. क्योंकि पहले उन्हें अपने यहाँ देखना चाहिए कि कैसे किसी का मांगलिक दोष दूर करने के लिए कुत्ते और केले के पौधों तक से शादी करनी पड़ती है.”
वजा फरमाया मौलाना ने ……
आखिर टोपी के नीचे सुस्त पड़ चुकी बुद्धि से उम्मीद भी क्या की जा सकती है? ऊपर से जब फायदे की बात हो तो मसला धार्मिक हो ही जायेगा.
फिर बात-बात में याद आने वाला संविधान क्या चीज है .वह तो सिर्फ जब अपनी मनमर्जी करनी होती है तभी याद आता है. नहीं तो यूनिफार्म सिविल कोड को कौन पूछता है.
रही बात दूसरों के धार्मिक मामलों में पेंच लड़ाने की तो सबसे पहले तो पर्सनल लॉ ही असंवैधानिक है. इस लिये उसके आधार पर लागू शरिया कानून भी असंवैधानिक ही हुए. लिहाजा इस मसले पर देश का कोई भी नागरिक अपनी राय रख सकता है.
रही बात अपने को सुधारने की तो मौलाना साहब जरा याद करके बता दीजिये कि अब तक कितने मुस्लिम समाज सुधारक हुये हैं. जबकि यहाँ एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त मौजूद है. और सिर्फ फेहरिस्त ही नहीं है बल्कि उनके द्वारा किए गये सुधार भी समाज में दिखते हैं.
वह चाहे सती प्रथा रही हो या बाल विवाह या बलि प्रथा, सभी को समय के साथ इस समाज ने परिष्कृत किया है. जब कोई कुरीति नजर आयी है समाज ने उसका विरोध किया है और सुधार को सकारात्मक तरीके से आत्मसात किया है.
विश्वास ना हो तो एक बार घूम कर देख लीजिये, आपको अपने शहर में ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ मांगलिक लड़कियों का भी सामान्य तौर तरीकों से विवाह हुआ होगा. क्या मजाल कि कोई पंडित ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर दे. अधिक से अधिक वह राय दे सकता है, उसे मानने के लिये विवश कत्तई नहीं कर सकता. जोर जबरदस्ती तो बिल्कुल भी नहीं.
फिर जानकारी ना हो तो पता कर लीजियेगा कि यहाँ किसी भी मसले पर किसी भी प्रकार के फतवे जारी करने की कोई व्यवस्था नहीं है.
ज्यादा कुछ नहीं ……. जब एक नारा बोलने पर आपको संविधान याद आ जाता है तो इस तीन तलाक वाले मसले पर भी कोर्ट को थोड़ा विचार कर लेने दीजिये. आखिर वह कोर्ट भी तो उसी संविधान के आधार पर ही फैसला सुनाती है जिसकी आप दुहाई देते फिरते हैं.